F यदैतत्स्वच्छन्दं /yadaitat svachhandam shloka vairagya - bhagwat kathanak
यदैतत्स्वच्छन्दं /yadaitat svachhandam shloka vairagya

bhagwat katha sikhe

यदैतत्स्वच्छन्दं /yadaitat svachhandam shloka vairagya

यदैतत्स्वच्छन्दं /yadaitat svachhandam shloka vairagya

 यदैतत्स्वच्छन्दं /yadaitat svachhandam shloka vairagya

यदैतत्स्वच्छन्दं /yadaitat svachhandam shloka vairagya


यदैतत्स्वच्छन्दं विहरणमकार्पण्यमशन

सहार्यैः संवासः श्रुतमुपशमैकव्रतफलम्।

मनो मन्दस्वन्दं बहिरपि चिरयापि विमृशन्नजाने

कस्यैषा परिणतिरुदारस्य तपसः॥४६॥

स्वछन्द विहार करना, बिना दीनता के भोजन मिलना, सत्पुरुषों की संगति होना, मानसिक शान्ति को देने वाले शास्त्रों का श्रवण करना, सांसारिक भावों में मन की प्रवृत्ति का मन्द होना आदि का चिरकाल तक विचार करने पर भी नहीं मालूम कि यह सब किस बड़ी तपस्या का फल है।

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