वयमिह परितुष्टा /vaymiha paritushta shloka vairagya
वयमिह परितुष्टा वल्कलैस्त्वं दुकूलैः
सम इव परितोषी निर्विशेषो विशेषः।
स तु भवति दरिद्रो यस्तृष्णा विशाला
मनसि च परितुष्टे कोऽर्थवान् को दरिद्रः॥४५॥
हे राजन् ! यहाँ हम पेड़ की छालों से सन्तुष्ट हैं और तू रेशमी वस्त्रों से, हमारे और तुम्हारे सन्तोष में कोई अन्तर नहीं है, संतोष दोनों का एक ही समान है। परन्तु जिनको धनलिप्सा अधिक है वही पुरुष दरिद्र हैं, क्योंकि मन के संतुष्ट होने पर न कोई धनी है, न कोई दरिद्र है।