परेषां चेतांति /paresham chetanti shloka vairagya
परेषां चेतांति प्रतिदिवसमाराध्य बहुधा
प्रसादं किं नेतुं विशसि हृदयं क्लेशकलितम।
प्रसन्ने त्वय्यन्तः स्वयमुदितचिन्तामणिगुणो
विमुक्तः सङ्कल्पः किमभिलषितं पुष्यति न ते॥३१॥
अरे हृदय ! तू प्रतिदिन अनेकों प्रकार से दूसरों की आराधना कर अत्यन्त प्रयास से मिलने वाले अनुग्रह को प्राप्त करने के लिए क्यों प्रवृत्त हो रहा है ? तू जब अन्तर्मुख होकर अपने स्थान में स्थित रहेगा तो बिना प्रयत्न के ही समस्त अभीष्ट वस्तु को देने वाले चिन्तामणि का स्वयं तेरे में उदय होगा, तो क्या उस समय वह तेरी अभिलाषा पूर्ण न कर सकेगा।