पुण्ये ग्रामे वने /punye grame vane shloka vairagya
पुण्ये ग्रामे वने वा महति सितपटच्छन्नपालिं कपालिं
ह्यादाभ न्यायगर्भद्विजहुतहुतभुग्धूमधूम्रोपकण्ठम्।
द्वारं द्वारं प्रविष्टो वरमुदरदरीपूरणाय क्षुधा”
मानी प्राणैः स धन्यो न पुनरनुदिनं तुल्यकुल्येषुदीनः॥५०॥
वह प्राणी धन्य है, जो भूख से व्याकुल होकर अपने उदररूपी कंदरा को भरने के लिए सफेद कपड़ों से ढके ठीकरे को हाथ में लेकर पवित्र ग्राम में अथवा बन में उनके द्वार पर भीख माँगना अच्छा समझता है, जिनके द्वार ब्राह्मणों द्वारा सतत किए गए मन के धुएँ से काले पड़ गए हैं, परन्तु अपने समान कुलवालों के दरवाजों पर दीन होकर प्रतिदिन भीख माँगना अच्छा नहीं।