रे कंदर्प करं कदर्थ /re kandarpa karam shloka vairagya
रे कंदर्प करं कदर्थयसि किं कोदण्डटङ्कारवै
रे रे कोकिलः कोमलैः कलरवैः किं त्वं वृथा जल्पसि
मुग्धे स्निग्धविदग्धक्षेपमधुरैर्लोलैः कटाक्षेरलं
चेतश्चुम्बित चन्द्रचूडचरणध्यानामृते वर्तते॥८५॥
हे कामदेव! धनुष के टंकारों से अपने हाथ को क्यों कष्ट दे रहा है, अरी कोयल! अपने सुन्दर, चतुर और चंचल कटाक्षों को अब न फेंक, हटा ले, क्योंकि मेरा मन अब चन्द्रशेखर भगवान् के चरणों के ध्यानरूपी अमृत में मग्न है।