स्फुरत्स्फारज्योत्स्ना /sfurat sfar jyotsna shloka vairagya
स्फुरत्स्फारज्योत्स्ना धवलिततले क्वापि पुलिने
सुखासीनाः शान्तध्वनिषु रजनीषुधुसरितः।
भवाभोगोद्विग्नाः शिव शिव शिवेत्यादिवचसा
कदा स्यामानन्दोद्गतबहुलवाष्पाप्लुतदृशः॥३९॥
सुनसान चन्द्रिका की रात्रि में गंगा जी के बालुकामय तट पर सुखपूर्वक बैठे हम सांसारिक प्रपञ्च से उद्विग्न होकर 'शिव शिव' 'शिव शिव' कहते हुए अपनी आँखों को आनन्द के आँसुओं से कब परिपूर्ण करेंगे।