शय्या शैलशिला/ shayya shail shila shloka vairagya
शय्या शैलशिला गृहं गिरिगुहा वस्त्रं तरुणां त्वचः
सारंगा सुहृदो ननु क्षितिरुहां वृत्तिः फलैः कोमलैः।
येषां नैझरमम्बुपानमुचितं रत्यै च विद्यांगनाः
मन्यन्तेपरमेश्वराः शिरसि यैर्बद्धो न सेवाञ्जलिः॥८॥
हम उनको परमेश्वर समझते हैं जिन्होंने पर्वतीय शिला को शय्या बनाया है, पर्वतीय कन्दरा जिनका गृह है। वृक्षों के फलों से जो उदर पूर्ति करते हैं, झरने के पानी से ही जिनकी तृषा निवृत्त होती है, विद्यारूपी स्त्री में ही जिनका अनुराग है और जिन्होंने कभी भी सेवा के लिए दूसरों के सामने अपना हाथ नहीं बाँधा है।