F उद्यानेषु विचित्र /udyaneshu vichitra shloka vairagya - bhagwat kathanak
उद्यानेषु विचित्र /udyaneshu vichitra shloka vairagya

bhagwat katha sikhe

उद्यानेषु विचित्र /udyaneshu vichitra shloka vairagya

उद्यानेषु विचित्र /udyaneshu vichitra shloka vairagya

 उद्यानेषु विचित्र /udyaneshu vichitra shloka vairagya

उद्यानेषु विचित्र /udyaneshu vichitra shloka vairagya


उद्यानेषु विचित्रभोजनविधिस्तीवातितीवं तपः

कौपीनावरणं सुवस्त्रमभितो भिक्षाटनं मण्डनम्।

आसन्न मरणं च मंगलसमं यस्या समुत्पद्यते

तां काशीं परिहृत्य हन्त विबुधैरन्यत्र किं स्थीयते॥४१॥

यहाँ बगीचे में भिन्न-भिन्न प्रकार के भोजन बनाकर खाना ही तीव्र तप है, जहाँ लंगोटी लगाना ही उत्तम वस्त्र है, भिक्षा वृत्ति ही भूषण है और जहाँ मृत्यु का होना मंगल के समान है, उस काशी का परित्याग कर पण्डित लोग अन्यत्र क्यों रह रहे हैं!

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 उद्यानेषु विचित्र /udyaneshu vichitra shloka vairagya


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