F तपस्यन्तः सन्तः /tapasyantah santah shloka vairagya - bhagwat kathanak
तपस्यन्तः सन्तः /tapasyantah santah shloka vairagya

bhagwat katha sikhe

तपस्यन्तः सन्तः /tapasyantah santah shloka vairagya

तपस्यन्तः सन्तः /tapasyantah santah shloka vairagya

 तपस्यन्तः सन्तः /tapasyantah santah shloka vairagya

तपस्यन्तः सन्तः /tapasyantah santah shloka vairagya


तपस्यन्तः सन्तः किमधिनिवसामः सुरनदी

गुणोदारान्दारानुत परिचरामः सविनयम्।

पिवामः शास्त्रौघानुत विविधकाव्यामृतरसान्

न विद्रुमः किं कुर्मः कतिपयनिमेषायुषि जने॥३७॥

हम नहीं जानते कि क्षणिक जीवन में इस शरीर से हम क्या करें-तपस्या करते हुए गंगाजी के तट पर निवास करें अथवा गुणों से उदार अपनी स्त्री की सविनय सेवा किया करें, किंवा वेदान्तादि शास्त्रों का श्रवण करें या काव्यरूपी अमृत का पान करें।

वैराग्य शतक के सभी श्लोकों की लिस्ट देखें नीचे दिये लिंक पर क्लिक  करके।
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 तपस्यन्तः सन्तः /tapasyantah santah shloka vairagya

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