तपस्यन्तः सन्तः /tapasyantah santah shloka vairagya
तपस्यन्तः सन्तः किमधिनिवसामः सुरनदी
गुणोदारान्दारानुत परिचरामः सविनयम्।
पिवामः शास्त्रौघानुत विविधकाव्यामृतरसान्
न विद्रुमः किं कुर्मः कतिपयनिमेषायुषि जने॥३७॥
हम नहीं जानते कि क्षणिक जीवन में इस शरीर से हम क्या करें-तपस्या करते हुए गंगाजी के तट पर निवास करें अथवा गुणों से उदार अपनी स्त्री की सविनय सेवा किया करें, किंवा वेदान्तादि शास्त्रों का श्रवण करें या काव्यरूपी अमृत का पान करें।