यात्रानेकः क्वचिदपि /yatraneka kvachidapi shloka vairagya
यात्रानेकः क्वचिदपि गृह तत्र तिष्ठत्यथैको
यत्राप्येकस्तदनु बहवस्तत्र नैकोऽपि चान्ते।
इत्थं चेमौ रजनिदिवसौ दौलयन्द्वाविवाक्षौ
कालः काल्यो भुवनफलके क्रीडुति प्राणशारैः॥३६॥
जहाँ अनेक थे, आज वहाँ एक दिखाई दे रहा है, जहाँ एक था वहाँ अनेक दिखाई दे रहे हैं और अन्त में एक भी नहीं रह जाता है इस तरह रात और दिनरूप दो पासों को फेंकता हुआ यह कालपुरुष अपनी स्त्री काली के साथ प्राणों का पासा बनाकर संसाररूपी चौपड़ खेल रहा है।