त्रैलोक्याधिपति /trailokya dhipati shloka vairagya
त्रैलोक्याधिपतित्वमेव विरसं यस्मिन्महाशासने
तल्लब्ध्वासनवस्त्रमानघटने भोगे रतिं मा कृथाः।
भोगः कोऽपि स एक एव परमो नित्योदितो जृम्भते
यत्स्वादाद्विरसा भवन्ति विषयास्त्रैलोक्यराज्यादयः॥६७॥
अरे मन! जिस परब्रह्म के महाशासन में त्रिभुवन का भी साम्राज्य फीका मालूम पड़ता है, उस शासन को प्राप्त कर। भोजन, वस्त्र और मानरूप भोग में प्रीति न कर। वही एक भोग यथार्थ भोग है जो सदा स्थायी और प्रकाशमान है, जिसके स्वाद से त्रैलोक्य के राज्य आदि भी विरस हो जाते हैं।