स्फुरत्स्फारज्योत्स्ना /sfuratsfar jyotsna shloka
स्फुरत्स्फारज्योत्स्नाधवलिततले क्वापि पुलिने
सुखासीनाः शान्तध्वनिषु रजनीषु धुसरितः।
भवाभोगोद्विग्नाः शिव शिव शिवेत्यार्तवचसा
कदा स्यामानन्दोद्गतबहुलबाष्पाप्लुतदृशः॥१४॥
नि:शब्द रात्रिके समय चारु चन्द्रिकासे धोये हुए श्रीजाह्नवीके धवल तटपर सुखपूर्वक बैठे हुए, सांसारिक सुखोंसे सन्तप्त होकर दीनवाणीसे 'शिव! शिव !! शिव!!!'-ऐसा कहते हुए आनन्दोद्गत प्रचुर प्रेमाश्रुओंसे मेरे नेत्र कब भरेंगे? ॥ १४॥