akbar and tansen visit haridas
अकबर तानसेन का हरिदास के पास जाना
बादशाहों का बादशाह
भारतीय इतिहास में अकबर एक जाना-पहचाना नाम है। बादशाह अकबर के दरबार में एक अद्वितीय गायक रहते थे। गायक का नाम था तानसेन। तानसेन संगीत के जादूगर थे।
एक बार बादशाह अकबर ने तानसेन से पूछा-“तानसेन! क्या इस दुनिया में तुमसे भी अच्छा कोई गायक है?" __ तानसेन ने उत्तर दिया-“हाँ जहाँपनाह , है।
मैं अपने गुरु स्वामी हरिदास के चरणों में बैठकर ही कुछ सीख सका हूँ। मैं उनके श्रीचरणों की धूल भी नहीं हूँ।" - "कभी मुझे भी उनका संगीत सुनाओ।" बादशाह ने अपनी इच्छा प्रकट की।
बादशाह की बात सुनकर तानसेन ने गंभीरतापूर्वक उत्तर दिया- “हुजूर! वह किसी के सामने गाते नहीं हैं।" - अकबर ने आश्चर्य के साथ पूछा- “क्यों?" “क्योंकि वे अपनी मर्जी के मालिक हैं।" तानेसन का उत्तर था।
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अकबर के मन में एक टीस-सी उठी। स्वामी हरिदास का संगीत सुनने के लिए वह व्याकुल हो उठा। उसकी यह इच्छा अत्यन्त तीव्र हो गई।
उसने कहा-“तानसेन! कोई युक्ति निकालो। जब तक मैं उनका संगीत नहीं सुन लेता, मुझे चैन नहीं मिलेगा।" ___ आखिर तानसेन के मस्तिष्क में एक युक्ति घूम गई।
उसके अनुसार वह अकबर को लेकर स्वामी हरिदास जी के आश्रम पर जा पहुँचा। अकबर को एक वृक्ष की ओट में छिपा दिया। हरिदास जी उस समय प्रभु के ध्यान में समाधि लगाये बैठे थे।
तानसेन ने उनके चरणों में गिरकर प्रणाम किया। स्वामीजी की समाधि टूटी तो आँखें खुल गईं। तानसेन को देखकर उन्होंने कहा-“कौन, तानसेन! कहो, कैसे हो! स्वास्थ्य ठीक है न? कहो, कैसे आना हुआ?"
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"गुरुजी! मैं संगीत में कहीं कुछ भूल गया हूँ?" तानसेन ने कहा। गुरुजी बोले-“अभी देखते हैं, तानपूरा उठाओ और गाओ।" तानसेन ने तानपूरा उठाया और स्वर निकाला।
उसने जानबूझकर एक स्थान पर गलत स्वर दबा दिया। गुरुजी ने उसे तुरन्त वहीं रोक दिया। तानसेन ने कहा-“गुरुजी यही भूल हो रही है।"
स्वामीजी ने तानसेन के हाथ से तानपूरा ले लिया और उसपर अंगुलियाँ चलाने लगे। उन्होंने ऐसे स्वर निकाले कि आकाश में उड़ते हुए पक्षी वहीं रुक गये। गुरुजी केवल दो-चार क्षण तानपूरा बजाकर रुके और तानसेन से पूछा-“कुछ समझ पाये तानसेन!"
तानसेन ने उत्तर दिया-“हाँ गुरो! अब मैं गाता हूँ।"
तानसेन ने तानपूरा लेकर वही राग ठीक-ठीक गाकर सुना दिया। गुरुजी प्रसन्न होकर बोले-“ठीक है, अब भूलना नहीं। तुम जैसे गायक को ऐसी भूलें शोभा नहीं देतीं।"
तानसेन ने उठकर उन्हें दण्डवत् प्रणाम किया और आश्रम से बाहर निकल आया। बाहर आकर उसने देखा कि बादशाह सलामत अकबर बेहोश-से बैठे हुए हैं। तानसेन ने पूछा- “सुना आपने जहाँपनाह?"
अकबर ने कहा- “तानसेन तुम इस तरह से क्यों नहीं गा सकते?" तानसेन ने सहज भाव से उत्तर दिया-“जहाँपनाह! मैं बादशाह सलामत के लिए गाता हूँ, जबकि गुरुजी उसके लिए गाते हैं, जो बादशाहों का बादशाह है।"