बाल कहानी संग्रह /आत्मबोध

 बाल कहानी संग्रह

बाल कहानी संग्रह /आत्मबोध

आत्मबोध

एक सन्त थे। उनका नाम था अरवा। वे स्वर्णकार कुल में पैदा हुए थे। यो तो स्वर्णकार दूसरों को ठगने वाले बताये जाते हैं किन्तु सन्त अरवा में इसके विपरीत एक गुण था कि कभी किसी को ठगते नहीं थे।


अत: अपनी ईमानदारी और अच्छे व्यवहार के कारण वह बहुत ही लोकप्रिय थे, इसलिए अन्य स्वर्णकारों की अपेक्षा उनका व्यवसाय अच्छा चल रहा था।


 एक दिन एक स्त्री ने, जिसे वह जानते तक नहीं थे, उनके पास तीन सौ रुपये धरोहर के रूप में रख दिये।


जब वह उन रुपयों को वापस लेने के लिए आई तो उसने अरवा जी से कहा-“भाई साहब, उन रुपयों के बदले आप मेरे लिए एक गले का हार बना दें।"


गले का हार तीन सौ रुपयों में बन नहीं सकता था, इसलिए सन्त ने निश्चय किया कि शेष राशि अपनी ओर से मिलाकर उसके लिए अच्छा सा गले का हार बना देंगे।

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इस प्रकार लगभग एक सौ रुपये का स्वर्ण अपना ओर से डालकर गले का हार बनाया और उस स्त्री को दे दिया।


स्त्री को जब हार का वजन भारी लगा तो उसे शंका हुई कि इस स्वर्णकार ने स्वर्ण में अवश्य ही किसी धातु को मिलाकर हार बनाया है। वह सोचकर दूसरे दिन ही वह सन्त के पास आई और उनको क्रोध से डाँटकर बोली-“तुमने इस सोने में अन्य धातु की मिलावट क्यों कर दी!”


अरवा जी ने स्त्री को समझाया-“तीन सौ रुपये में अच्छा कंठहार बन नहीं सकता था, इसलिए मैंने अपनी ओर से सोना मिलाकर इसे बनाया है।"


स्त्री को उनकी बात पर विश्वास नहीं हुआ। वह उस हार को लेकर एक दूसरे स्वर्णकार के पास गई और उससे हार की परख करवाई। स्वर्णकार ने उससे कहा- “हार के सोने में कोई खोट नहीं है, किसी प्रकार की कोई मिलावट नहीं हुई है, इस हार का मूल्य चार सौ रुपये से कम न होगा।"

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स्त्री लौटकर पुनः सन्त के पास गई और कहा-“आपने मुझसे पूछे बिना ही और सोना क्यों मिला दिया?"


सन्त ने उसे विश्वास दिलाते हुए उत्तर में कहा-“तीन सौ रुपये में अच्छा हार बनना सम्भव नहीं था, इसलिए मैंने अपनी ओर से असली सोना मिलाया है लेकिन उसका मूल्य मैं तुमसे नहीं लूंगा।"


यह सुन स्त्री तो प्रसन्न होकर चली गई लेकिन इस घटना से सन्त को आत्मबोध हो गया। वे सोचने लगे-“मैंने इस स्त्री को प्रसन्न करने के लिए अपनी ओर से सोना मिलाया था, लेकिन इसके मन में मैल आ गया।


वास्तव में संसार बहुत ही स्वार्थी है। यहाँ के लोग स्वयं शुद्ध मन के हैं नहीं, अत: वे और सबको भी छलिया समझते हैं।


उन पर लोभ समा जाता है तथा दूसरे से कुछ और पाने की आशा पाल लेते हैं। अच्छा यही होगा कि मैं इस संसार को त्याग दूं, जिससे मुझे किसी वस्तु की आशा न रहे।" -


इन विचारों से उनमें वैराग्य उत्पन्न हो गया और उन्होंने अपना व्यवसाय छोड़ दिया। वे सन्तों की संगति प्राप्त करने के लिए तीर्थाटन पर चले गये।

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