ज्ञान वाली कहानी (उचित और अनुचित)

 ज्ञान वाली कहानी 

ज्ञान वाली कहानी (उचित और अनुचित)

(उचित और अनुचित)

ईरान में एक सन्त हुए हैं। उनका नाम था-ख्वाजा हाफिज शीराजी। एक बार उन्होंने लोगों से एक मिसिरा कहा। मिसरा किसी पद्य, दोहे या छन्द का आधा भाग होता है।


जो मिसिरा शीराजी ने कहा था, वह था वमै सज्जादः रंगीकुन गरत पीरे मुगां तोयद।

(यदि मुर्शिद का हुक्म हो तो शराब से मुसल्ला रंग ले।)


यह सुनते ही लोग क्रोधित हो गये कि ख्वाजा ने मुसल्ला को शराब में रंगने की बात कहकर धर्म का मखौल उड़ाया है।


(मुसल्ला का अर्थ-वह चटाई या वस्त्र है जिस पर बैठकर नमाज अता की जाती है।)

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लोगों ने ख्वाजा के इस कथन की काजी से शिकायत कर दी। काजी ने उन्हें बुलाया और जवाब तलब किया। ख्वाजा साहब ने निडर होकर उत्तर दिया-“जो कह दिया सो कह दिया।


न मैं अपने शब्द वापस ले सकता हूँ और न क्षमा-याचना ही कर सकता हूँ।" काजी ने कहा- “आपने जो मिसिरा पढ़ा, उसका अर्थ तो बताइए।"


ख्वाजा साहब बोले- “मैं नहीं जानता, इसका क्या अर्थ है। सामने की पहाड़ी पर बैठा हुआ फकीर ही इसका अर्थ बता सकता है।"


काजी उस पहाड़ी पर बैठे फकीर के पास पहुँच गया। एक अशर्फी फकीर को देकर उस मिसरे का अर्थ पूछा। फकीर ने कहा- “पास ही एक वेश्या रहती है, उससे जाकर मिलो।"

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उसकी बात सुनी तो काजी हैरान! वह सोचने लगा-क्या मामला है, समझ में नहीं आता। एक शराब से मुसल्ला रंगने की बात कहता है तो दूसरा उसे वेश्या के पास भेजना चाहता है।


खैर, काजी वेश्या के स्थान पर गया, पर वेश्या वहाँ नहीं थी। वह कहीं बाहर गई हुई थी। घर के सामने एक युवा लड़की खड़ी हुई थी। वह उसके पास गया तो वह रोने लगी।


काजी ने रोने का कारण पूछा तो वह रो-रोकर बताने लगी-“मेरी किस्मत खोटी है। मेरे बचपन की उम्र में ही कोई मुझे भगाकर यहाँ ले आया था। अब मुझे वेश्या-वृत्ति करने के लिए विवश किया जा रहा है।"

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काजी ने लड़की से कई प्रश्न किये। उनका संतोषजनक उत्तर मिलने पर उसने उसकी गर्दन पर एक निशान देखा। उस निशान को देखते ही काजी प्रसन्नता से झूम उठा। कारण यह था कि वह काजी की अपनी बेटी थी जिसे बचपन में कोई भगा ले गया था।


काजी समझ गया कि ख्वाजा ने बेटी से भेंट करने के लिए ही उसे वेश्या के पास भेजा था। वह अपनी बेटी को लेकर ख्वाजा साहब के पास गया और प्रार्थना की कि दूसरा मिसिरा कहकर पद्य को पूरा करें।


तब ख्वाजा ने मिसिरा कहा के मालिक बेखबर ने बवदज राहे रस्मे मंजिल हा॥ (

मार्गदर्शक गन्तव्य के मार्ग के भेद और रीति से अपरिचित नहीं होते, इसलिए वे जो कुछ भी कहते हैं, वह उचित ही कहते हैं, अनुचित नहीं।)

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