धार्मिक कहानी (सद्गुरु की सेवा)

bhagwat katha sikhe

धार्मिक कहानी (सद्गुरु की सेवा)

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 धार्मिक कहानी 

धार्मिक कहानी (सद्गुरु की सेवा)

(सद्गुरु की सेवा)

सिक्ख गुरु साहिब अर्जुन देव जी से मिलने के लिए एक बार कुछ भाटी का प्रतिनिधि-मण्डल आया। मण्डल के मुखिया ने अर्जुन देव जी से प्रार्थना की-“हमें किसी विशेष कार्य के लिए कुछ रुपये चाहिए।


इसके लिए हम सहायता माँगने आये हैं। यदि प्रत्येक सिक्ख के आधार पर हमें चन्दा दे दें तो बड़ी कृपा होगी। हम आपके प्रति बहुत कृतज्ञ होंगे।"


गुरु अर्जुन देव जी ने उन्हें आश्वासन दिया कि आप कुछ दिनों बाद आ जायें, आपको चन्दा मिल जायेगा। यह सुन भाटों की टोली प्रसन्न हो गई।


उन्होंने सोचा, इस बीच अर्जुन देव जी की बहुत-से सिक्खों से भेंट हो जायेगी और चन्दे की राशि बढ़ जायेगी। हमारे पास बहुत से रुपये एकत्रित हो जायेंगे।

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कुछ दिनों बाद वह प्रतिनिधि-मण्डल पुनः अर्जुन देव जी के पास गया और उनकी कही हुई बात का स्मरण कराया कि आपने हमें बाद में आने को कहा था, हम उसी सन्दर्भ में आये हैं।


गुरुजी ने उन्हें पुनः दुबारा आने के लिए कहा। ___कुछ दिन बीत गये। भाटों का प्रतिनिधि-मण्डल पुनः गुरुजी की सेवा में उपस्थित हुआ।


गुरुदेव ने उनके मुखिया को साढ़े चार रुपये दे दिये। यह देख भाटों ने कहा-“क्या चंदे में साढ़े चार रुपये ही आप देंगे! यह तो चन्दे की कोई राशि नहीं हुई!"


गुरुदेव ने उत्तर दिया-“हाँ, आप लोगो के कहे अनुसार यही राशि बनती है। सिक्खों की संख्या इतनी ही बनती है जितने रुपये मैंने आपको दिये हैं।"

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यह सुना तो भाट लोगों को बहुत आश्चर्य हुआ। उनकी हैरानी को गुरुदेव भाँप गये। उन्होंने स्पष्ट किया-“सुनो!


पहले सिक्ख हैं गुरु नानक साहिब, दूसरे हैं अंगददेव, तीसरे अमरदास जी और चौथे रामदास जी। पाँचवीं उंगली पर मुझे गिना जाता है पर मैं पूरा सिक्ख नहीं, केवल आधा सिक्ख हूँ। अतः इस संख्या के अनुसार ही आप लोगों को साढ़े चार रुपये दिये हैं।"


कुछ क्षण शान्त रहकर अर्जुनदेव जी ने पुनः कहा-“तुम्हें लगता है कि सिक्ख अनगिनत हैं, पर यह आप लोगों की भूल है।


वास्तव में सिक्ख होना इतना आसान नहीं है कि जो चाहे वह सिक्ख बन जाये। सिक्ख-सिद्धान्तों को अपनाना तलवार की धार पर चलने के समान है, जो बहुत कठिन है।

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उसी मनुष्य को वास्तविक सिक्ख कहा जा सकता है जो सद्गुरु का शिष्य बनकर उनकी शिक्षा पर आचरण करता है अर्थात् उनकी शिक्षा को वास्तविक रूप में ग्रहण कर लेता है।


सच्चा शिष्य यही है जो अपने सद्गुरु की बिना स्वार्थ, बिना लालच पूरी निष्ठा से सेवा करता है। साथ ही नेत्रों के बीच का पर्दा उठाकर परमात्मा से मिलने की चेष्टा करता है।


यदि वहते-जी परमात्मा का साक्षात्कार नहीं कर पाता तो वह अपने सद्गुरु का सच्चा शिष्य नहीं कहा जा सकता और जब वह सद्गुरु का सच्चा शिष्य दी नहीं है तो सिक्ख भी कैसे कहा जा सकता है।"

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