धार्मिक ग्रंथों की कहानी (गुरु की सेवा से मोक्ष)

धार्मिक ग्रंथों की कहानी

धार्मिक ग्रंथों की कहानी (गुरु की सेवा से मोक्ष)

(गुरु की सेवा से मोक्ष) -

संत एकनाथ गुरु के प्रति अखंड निष्ठा रखने वाले शिष्य थे। जन्म के कुछ समय बीतने पर बाल्यावस्था में ही उनके माता-पिता स्वर्गवासी हो गये थे।


अत: इनका लालन-पालन इनके दादा ने किया था। बचपन की उम्र में ही उनकी बुद्धि विकसित (परिपक्व) हो गई थी और उनमें श्रद्धा उत्पन्न हो गई थी।


वह इसी उम्र में सन्ध्या-वंदन करने लगे थे। भगवद्भजन एवं पुराणों के पाठ में उन्हें अत्यन्त रुचि थी। जब वे भक्ति रस की धारा में तैरने लगते तो हाथों में करताल लेकर या कन्धे पर करहुला (सारंगी) रखकर ईश्वर का गुणगान करते हुए नाचने लगते थे।


बालक एकनाथ मन में चिन्तन करते रहते थे कि कब मुझे समर्थ गुरु प्राप्त होंगे? एक बार वह विद्यालय में बैठ हरिगुण गा रहे थे।

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रात्रि के तीन पहर बीत चुके थे। तभी उनके हृदय में प्रेरणा जगी और उसके अनुसार वह देवगढ़ के लिए चल दिये। वहाँ उनकी भेंट जनार्दन पंत से हुई।


गद्गद हृदय से उन्होंने स्वयं को उनके श्रीचरणों में समर्पित कर दिया। उन्हें ज्ञान हो गया था कि इन्हीं के द्वारा मुझे आत्मज्ञान की प्राप्ति होगी और मेरा मन जनहित करने में लग जाएगा।


बस, एकनाथ गुरु-सेवा में लीन हो गये। वे प्रातः जल्दी ही जग जाते और जो सेवा उन्हें दिखाई देती, बिना किसी आज्ञा की प्रतीक्षा किये, कर डालते।


पंत जी के आश्रम में कई अन्य शिष्य भी थे, पर एकनाथ कभी यह चार नहीं करते थे कि इस कार्य को कोई और शिष्य कर देगा।

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अपने जी को सन्तुष्ट कर देना ही उनका अपना संतोष था। गुरु जो कुछ कहते ॐ एकनाथ जी के लिए वही शास्त्र-वचन था।


'गुरुः साक्षात् परब्रह्म' में की सच्ची निष्ठा थी। छह वर्ष तक वह क्रम चलता रहा। एक दिन गुरु की ने एकनाथ की निरन्तर सेवा से प्रसन्न होकर उनसे कहा-“वत्स! अनष्ठान करो।"


गुरु के आदेश की देर थी, उन्होंने तुरन्त अनुष्ठान प्रारम्भ कर दिया। धीरे-धीरे उनके हृदय में सन्तत्व (अच्छे विचार) जड़ पकड़ने लगा।


एक दिन वह समाधि लगाये ध्यान में मग्न थे। तभी एक सर्प फुसकार मारता हुआ आया और उनकी काया के चारों ओर लिपट गया।

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पर इससे एकनाथ को ध्यानमग्न रहते हुए कुछ अनुभव नहीं हुआ। उलटे एकनाथ के शरीर से स्पर्श होते ही उसके प्रभाव से वह जहर उगलने की प्रवृत्ति को भूल गया और उसने उनके मस्तक पर फन फैला दिया। वह इतना प्रभावित हुआ कि झूमने लगा।


ऐसा प्रायः ही होने लगा। जब एकनाथ जी समाधिलीन होते तो वह उनके पास आ जाता और समाधि टूटने पर चला जाता। एकनाथ जी को यह बिल्कुल भी पता नहीं था।


एकनाथ जी के लिए एक भक्त राज दूध लेकर आता था। एक दिन उसने इस दृश्य को देखा तो उसकी चीख निकल गई। एकनाथ जी की समाधि टूट गई।

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उन्होंने जाते हुए सर्प को देखा। _ अनुष्ठान सम्पन्न हो गया तो एकनाथ ने यह वृत्तान्त गुरुजी को सुनाया। गुरुजी बहुत प्रसन्न हुए। उन्होंने शिष्य पर आशीर्वादों की पुष्पवर्षा की।


इसके बाद उनका नाम एकनाथ जी महाराज हो गया और लोग उनकी पूजा करने लगे।


गुरु श्रद्धा के बारे में एकनाथ जी ने कहा- “गुरु ही माता-पिता, स्वामी और कुल देवता है। जब तक गुरुजी की कृपा नहीं होती, किसी भी देवता का स्मरण नहीं होता।


मन, वचन और कर्म से गुरु की भक्ति की जाये, वही गुरुभक्ति है। गुरु-सेवा में शिष्य का मन लगना चाहिए। ऐसा करने से मुक्ति का द्वार स्वयं खुल जाता है, यही सब मेरे साथ हुआ है।"

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