शिक्षाप्रद धार्मिक कहानी
(बड़े भाग्य मानुष-तन पावा)
एक थे महर्षि रमण। उनके आश्रम के पास एक गाँव था। उस गाँव में एक अध्यापक महोदय रहते थे। उनके परिवार में कलह होता रहता था। उस कलह का अध्यापक के ऊपर बड़ा बुरा प्रभाव पड़ता था।
जब कलह की सीमा लँघने लगी तो उसने मन में सोचा- 'इस प्रतिदिन के कलह और अशान्ति से तो यही अच्छा है कि मैं आत्मघात कर लूँ।' पर यह एक विचार ही था।
आत्महत्या का निर्णय ले लेना सरल नहीं होता। रह-रहकर मनुष्य का ध्यान अपने परिवार के भविष्य की ओर चला जाता है। अतः यह किंकर्तव्यविमूढ़ की स्थिति से घिर गया था।
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वह ऊहापोह में पड़ा हुआ निर्णय नहीं कर पा रहा था कि क्या करूँ, क्या न करूँ। पर्याप्त संकल्प-विकल्प के झूले में झूलता वह अध्यापक महर्षि रमण के आश्रम में गया।
वहाँ पहुँचकर उन्हें प्रणाम किया। महर्षि ने देखा तो उसे आशीर्वाद देते हुए बैठने का संकेत किया। उसके बैठ जाने पर महर्षि ने प्रश्न किया-“कहिए, आप कैसे आये हैं? क्या मैं आपकी कोई सहायता कर सकता हूँ?"
अध्यापक महोदय ने अपनी मनोव्यथा उनसे कह सुनाई और अन्त में कहा-“महर्षे! कृपया मेरा मार्ग-दर्शन करें।"
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महर्षि उस समय आश्रम में रहने वाले जनों के भोजन के लिए पत्तले बनाने में व्यस्त थे। उनका ध्यान पत्तलों में लगा था, फिर भी उन महोदय की बातें चुपचाप सुन रहे थे।
अध्यापक ने सोचा-स्वामी जी का ध्यान पत्तल बनाने में लगा है अतः मेरा समाधान करने में इन्हें देर लगेगी। साथ ही स्वामी जी को परिश्रम और कार्य में तल्लीन देखकर चकित रह गया।
पर अपने समाधान में विलम्ब होता देख अध्यापक ने महर्षि से कहा-“महर्षे! आप इन पत्तलों को बनाने में इतना परिश्रम कर रहे हैं, पर भोजन के बाद तो ये सब कूड़े के ढेर पर ही फेंक दी जायेंगी।"
महर्षि के अधरों पर मुस्कान तैर गई। उन्होंने कहा-“आपका कहना तो ठीक है। पर किसी वस्तु का जब पूरा उपयोग कर लिया जाये तब उसे फेक देना कोई बुरी बात नहीं।
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बुराई की बात तो तब होगी जब उस वस्तु का उपयोग किये बिना ही, ठीक अवस्था में उसे फेंक दिया जाये।"
महर्षि के कथन को सुनकर अध्यापक महोदय महर्षि रमण की मुखाकृति को एकदम चुपचाप देखते रह गये।
महर्षि ने पुनः कहा-“आप तो अध्यापक हैं और अध्यापक को सुविज्ञ होना ही चाहिए। अतः मैं समझता हूँ कि आपने मेरे कहने का आशय समझ लिया होगा।"
महर्षि के इन शब्दों ने अध्यापक महोदय की समस्या का समाधान कर दिया। उन्हें अपनी वर्तमान परिस्थिति में भी जीने की बलवती इच्छा हो गई और उन्होंने आत्महत्या के विचार को तुरन्त त्याग दिया।