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शिक्षा ज्ञान वाली कहानियां /स्वच्छ प्रसाद

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शिक्षा ज्ञान वाली कहानियां /स्वच्छ प्रसाद

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 शिक्षा ज्ञान वाली कहानियां

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स्वच्छ प्रसाद

सिक्ख गुरु अंगददेव जी बड़े विद्वान सन्त थे। एक बार जोधा जी उनके दर्शन करने आये। वे अपने मन से जाति के अभिमान को दूर करना चाहते थे।


उन्होंने अपने मन की बात गुरु अंगददेव जी से कही। गुरु जी ने कहा-“तुम लंगर की सेवा करो।"


गुरु अंगददेव की आज्ञा जोधाजी ने शिरोधार्य कर ली। उन्होंने लंगर में सेवा करना प्रारम्भ कर दिया। सुबह से शाम तक लंगर में जुटे रहने लगे।


वे आने वाले लोगों की सेवा तो करते ही थे, साथ ही उनके बर्तन भी साफ करते थे। पंगत में बैठे हुए लोग जो भी जूठन छोड़ते, उसी को खाकर अपना पट भरते।

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उन्हें ऐसा करते देखा तो एक शिष्य ने, जिसका नाम बुड्ढा था, उनसे पूछा-“आप लंगर का भोजन कैसे करते हैं?" जोधाजी ने जवाब दिया- "चिड़िया चोग (चिड़िया की तरह चुनता हूँ।)"


एक दिन अंगददेव पंगत में बैठे भोजन कर रहे थे। भाई जोधाजी को पगत में बैठे नहीं देखा तो उन्होंने उन्हें बुलाया और कहा-“सेवा तो खूब करते हो, मगर लंगर कब छकते हो?" जोधाजी ने वही उत्तर दिया-“चिड़िया चोग।"


गुरुदेव ने आश्चर्य के साथ कहा- "इसका अर्थ है कि तुम जूठन का चुगते हो? यह ठीक नहीं है। तुम्हें स्वच्छ लंगर छकना चाहिए। जूठा खाना कोई विनम्रता की बात नहीं है। उलटे यह एक हीनता है।"

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जोधाजी ने स्वच्छ लंगर छकना शुरू कर दिया। एक दिन भाई बुडना जी ने उन्हें स्वच्छ भोजन करते देख लिया। उन्होंने व्यंग्पूर्वक जोधा जी का कहा-“अरे, पहले तो तुम जूठा प्रसाद ग्रहण करते थे, पर अब तो स्वच्छ भोजन करते हो!"


जोधाजी ने उत्तर दिया-“पहले मेरे अन्दर एक चाण्डाल रहता था. जिसे जाति-अभिमान कहते हैं। मैं उस चाण्डाल को जूठा भोजन देता था। परन्तु अब मेरे अन्दर गुरुजी का उपदेश रहने लगा है, इसलिए उसको अब स्वच्छ प्रसाद देता हूँ।"

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