Dharmik Stories in Hindi (अनुपम त्याग)

 Dharmik Stories in Hindi

Dharmik Stories in Hindi (अनुपम त्याग)

(अनुपम त्याग) 

चैतन्य महाप्रभु का नाम भक्तों के क्षेत्र में अनजाना नहीं है। एक बार वह नाव में यात्रा कर रहे थे। उनके सहयात्री थे उनके बचपन के मित्र रघुनाथ शास्त्री। शास्त्री जी विद्वान तो थे ही, संस्कृत के प्रकांड पंडित भी थे।


उन्हीं दिनों चैतन्य महाप्रभु ने कठिन साधना कर। परिश्रम से न्याय शास्त्र पर एक ग्रन्थ की रचना की थी। 


वह ग्रन्थ बहुत ही उच्च कोटि का था। वह ग्रन्थ उन्होंने नाव में सहयात्रा करते अपने प्रिय मित्र रघुनाथ शास्त्री को देखने के लिए दिया। 

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शास्त्री जी बड़ी गम्भीरता से ग्रन्थ का अध्ययन करते रहे और जब अध्ययन पूरा हुआ तो उनके चेहरे की कांति धीमी पड़ गई और उनके नेत्रों में आँसू झलकने लगे।


 चैतन्य जी ने उन्हें इस स्थिति में देखा तो उन्हें बड़ा आश्चर्य हुआ। उन्होंने शास्त्री जी से रोने और चेहरा उतर जाने का कारण पूछा।


शास्त्री जी से कुछ कहते नहीं बन रहा था, फिर भी साहस करके उन्होंने कहा-“मित्रवर! मैंने भी वर्षों तक श्रम करके न्यायशास्त्र पर एक ग्रन्थ लिखा है। 

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ग्रन्थ के पूरा हो जाने पर मैं सोच रहा था कि जब यह ग्रन्थ सार्वजनिक होगा तो मुझे बड़ा यश प्राप्त होगा और अनेक बधाइयाँ भी प्राप्त होंगी। 


क्योंकि यह ग्रन्थ अब तक के इस विषय पर प्रकाशित होने वाले ग्रन्थों से बहुत उच्च श्रेणी का समझा जायेगा और मेरी वर्षों तक की गई श्रम-साधना सफल हो जायेगी।"


“यह आशा रखना कोई अपराध तो नहीं है। इसमें म्लान होकर रोने की क्या बात है?" चैतन्य महाप्रभु ने कहा।


शास्त्री जी बोले-“लेकिन आपके इस ग्रन्थ के आगे तो मेरा ग्रन्थ कहीं नहीं टिकेगा। सूर्य के सामने टिमटिमाता दीपक ही रह जायेगा।"

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शास्त्री जी के इस कथन पर चैतन्य महाप्रभु को हँसी आ गई। वह बोले-“बस, इतनी-सी बात के लिए तुम पर उदासी छा गई! लो, मैं अभी इस ग्रन्थ को गंगा मैया की भेंट चढ़ा देता हूँ।"


यह कहकर चैतन्य महाप्रभु ने उस ग्रन्थ को तुरन्त टुकड़े-टुकड़े करके गंगा की धारा में प्रवाहित कर दिया।

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