dharmik story hindi me
आस्था और अभ्यास
गुरु द्रोणाचार्य के सान्निध्य में कौरव और पाण्डव धनुर्विद्या का अभ्यास कर रहे थे। उन्हीं दिनों की एक घटना है।
भील-कुल में जन्मे बालक एकलव्य ने सुना कि कौरव और पाण्डवों को धनुर्विद्या सिखाने वाले आचार्य द्रोण अपनी इस कला में पूर्ण पारंगत हैं। वह भी धनुर्विद्या सीखना चाहता था।
अतः एक दिन वह उनके पास गया। उसने प्रणाम करके आचार्य जी से प्रार्थना की-“गुरुवर! मैं आपके श्रीचरणों में बैठकर धनुर्विद्या सीखना चाहता हूँ। इसलिए आपकी सेवा में प्रस्तुत हुआ हूँ। कृपया मुझे अपना शिष्य बनाकर कृतार्थ करें।"
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आचार्य द्रोण बालक के व्यक्तित्व और वाणी से बहुत प्रभावित हुए। उन्होंने पूछा-“बेटा! तुम किसके पुत्र हो और तुम्हारा नाम क्या है?"
अपना परिचय देते हुए बालक ने कहा- “पूज्य गुरुवर! मेरा नाम एकलव्य है और मैं भील-कुल में पैदा हुआ हूँ।"
आचार्य भूल गये कि गुरु का कार्य ज्ञान बाँटना है। उन्हें इसके लिए जाति और धर्म को नहीं, जिज्ञासु की ज्ञान और विनय पर ध्यान देना चाहिए। अत: उन्होंने उसकी उपेक्षा करते हुए कह दिया-“मेरी नियुक्ति केवल राजकुमारों को शिक्षा देने के लिए हुई है।"
चोट खाकर एकलव्य गुरु के उत्तर से आहत और निराश होकर वापस चला गया। पर न तो उसमें अभिमान था न बड़ों का अनादर करने की भावना।
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अपमान भूलकर उसने गुरु द्रोणचार्य की मूर्ति स्थापित की और धनुर्विद्या का अथक एवं अनवरत अभ्यास करने लगा। परिणामस्वरूप उसने अल्प समय में ही इस विद्या में महारत हासिल कर ली।
थोड़े दिन बाद एक घटना घटी। सभी राजकुमार शिकार खेलने गये। उनके साथ कुत्ते भी थे। एक कुत्ता उनके आगे-आगे चल रहा था। एकलव्य के बाण छोड़ने की आहट से वह भौंकने लगा।
एकलव्य को लगा कि यह कुत्ता कहीं राजकुमारों पर वार न कर दे अत: उसका मुँह बन्द करने के लिए एक-एक करके कई बाण उसके मुँह में भर दिये। कुत्ते का भौंकना बंद हो गया। प्रशंसा की बात यह थी कि कुत्ते को कहीं भी चोट नहीं आई।
राजकुमारों ने यह देखा तो उनके आश्चर्य का ठिकाना नहीं रहा। वे एकलव्य के पास पहुँचे और पूछा कि उसे धनुर्विद्या की ऐसी शिक्षा किसने दी है?
एकलव्य ने गुरु द्रोण की मूर्ति की ओर संकेत करते हुए उत्तर दिया-“आचार्य द्रोण ने। इन्हीं के आशीर्वाद से धनुर्विद्या में मुझे यह महारत हासिल हुई है।"
राजकुमार राजधानी में पहुँचे तो उन्होंने एकलव्य की बाण-विद्या का समाचार आचार्य द्रोण को सनाया। फिर अर्जन ने आचार्यश्री से कहा-“गुरुदेव! आपने मुझे छाती से लगाकर बड़े प्रेम से कहा था कि मुझसे बड़ा आपका अन्य कोई शिष्य नहीं हो सकता।
परन्तु आपका शिष्य एकलव्य तो इस विद्या में मुझसे बहुत आगे है।" ___ अर्जुन के मुँह से यह बात सुनी तो आचार्य सबके साथ एकलव्य के पास जा पहुँचे।
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आचार्य को देखकर एकलव्य ने उनके पास आकर दण्डवत प्रणाम किया और हाथ जोड़कर उनके सामने खड़ा हो गया। बोला-“आपका शिष्य सेवा में उपस्थित है, आज्ञा कीजिए।"
द्रोणाचार्य ने कहा-“यदि सचमुच ही तुम मेरे शिष्य हो तो मुझे गुरुदक्षिणा दो।"
“आप आज्ञा करें, मैं पालन करने को प्रस्तुत हूँ।" एकलव्य ने श्रद्धावनत हो उनके चरणों में मस्तक रख दिया।
द्रोणाचार्य ने गुरुदक्षिणा में उसके दाहिने हाथ का अंगूठा माँगा और गुरुभक्त एकलव्य ने बिना एक क्षण का विलम्ब किये उत्साहपूर्वक प्रसन्नता के साथ दाहिने हाथ का अंगूठा काटकर गुरुदेव को सौंप दिया और उनके शिष्य आश्चर्य के साथ धन्य-धन्य कह उठे।
धन्य है एकलव्य! उसकी जैसी नि:स्वार्थ गुरुभक्ति शायद ही कहीं देखने और सुनने को मिले।