short dharmik story in hindi /मन का पाप

 short dharmik story in hindi

short dharmik story in hindi /मन का पाप

मन का पाप

एक सन्त थे। पहुँचे हुए सन्त। स्वयं को सबसे अधम समझते थे। हर एक को अपने से उत्तम सझमते थे। एक दिन घूमते-फिरते वह एक नदी के किनारे जा पहुंचे। वह स्थान एकांत तो था ही, रमणीय भी था। 


वहाँ विश्राम करते हुए उन्होंने देखा कि नदी के किनारे स्वच्छ बालू पर एक प्रौढ़ आयु का मनुष्य बैठा है। वह उल्लास से भरा है। उसके पास ही एक सुंदर युवती बैठी है। उसके हाथ में कंच का एक गिलास है। गिलास में कोई द्रव पदार्थ है। दोनों बेधड़क होकर हँस-हँसकर बातें कर रहे हैं।


इस दृश्य को देखकर संत ने मन में सोचा-निर्जन स्थान में इस प्रकार परस्पर मनोविनोद करने वाले ये स्त्री-पुरुष निश्चय ही किसी पाप-चर्चा में संलग्न हैं। इस कंच के गिलास में अवश्य ही शराब होगी।

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 तो क्या मैं इनसे भी अधम हूँ! मैं तो किसी स्त्री से एकांत में कभी मिलता तक नहीं। मैंने जीवन में शराब भी कभी नहीं पी है।


संत इस तरह सोच ही रहे थे कि नदी के भयानक बहाव में एक डूबती हुई नाव दिखाई दी। नाव उलट चुकी थी। यात्री पानी में इधर-उधर हाथ मार रहे थे। सब के प्राण संकट में थे। 


यह देख वह हाय-हाय कर उठे। इसी बीच वह प्रौढ़ मनुष्य बिजली की तरह दौड़ा और नदी में कूद गया। उसने बड़ी बहादुरी के साथ शीघ्र ही नौ मनुष्यों को बचाकर निकाल लिया। 


इतने में संत भी वहाँ जा पहुंचे। इस तरह अपने प्राणों की परवाह न कर दूसरों के प्राण बचाने के लिए मौत के मुँह में छलांग लगा देना और सफलता के साथ बाहर निकल आना देखकर संत के मन में परिवर्तन का भाव आ गया। 


वे चकित होकर उसके मुख को ताकने लगे। मनुष्य ने मुस्कराकर कहा-“महात्माजी, भगवान ने मुझ अकिंचन के माध्यम से नौ प्राणियों को तो बचा लिया। एक रह गया है, उसे आप बचाइए।"

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संत को तैरना नहीं आता था। अतः वे कूदने का साहस नहीं जुटा सके। वे कोई उत्तर भी नहीं दे सके। इस पर वह मनुष्य बोला-"अपने को नीचा और दूसरों को ऊँचा मानने का भाव तो बहुत सुंदर है परन्तु वास्तव में दूसरों को ऊँचा देखने का सही-सही भाव अभी तक आपमें पैदा नहीं हो पाया है। 


नीचा देखकर ऊँचा मानना अपने में यह अभिमान पैदा करता है कि मैं अपने से नीचों को भी ऊँचा मानता हूँ। जिस दिन आप दूसरों को अंत:करण से ऊँचा देख पायेंगे उसी समय से आप यथार्थ में ऊँचा मान भी सकेंगे। 


भगवान मूर्ख के रूप में आपके पास आयें और आप उन्हें पहचान लें तो क्या उनका मूरों जैसा बर्ताव देखकर भी उनको मूर्ख मानेंगे? जो साधक सबमें श्री भगवान को पहचानता है, वह किसी को अपने से नीचा नहीं मान सकता।"


क्षण भर रुककर वह फिर बोला-“एक अन्य बात यह भी है कि अभी तक आपके मन में पाप-संस्कारों का प्रभाव बना हुआ है। 


नियम यह है कि अपने ही मन के दोष दूसरों पर आरोपित होते हैं। पापी को सारा जगत पापमय दिखाई देता है।

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आपने अपनी भावना से हम लोगों को पापी मान लिया। देखिए, वह जो लड़की बैठी है, मेरी बेटी है। इसके हाथ में जो गिलास है, वह पवित्र गंगा का जल है।


यह बहुत दिन बाद आज ही अपने ससुराल से लौटकर आई है। इसका मन देखकर हम लोग नदी किनारे पर गए थे। बहुत दिनों बाद मिलने के कारण हम आनंदित थे, इसलिए हम हँस-हँसकर बातें कर रहे थे।


फिर बाप-बेटी में संकोच भी कैसा? असल में मैं तो भगवान की प्रेरणा से आपके भाव की परीक्षा लेने आया था।"


प्रौढ़ व्यक्ति की बातें सुनकर संत के अभिमान और पाप के सभी संस्कार नष्ट हो गये। उन्होंने माना कि प्रभु ने दया करके इनके द्वारा मुझे यह उपदेश दिलवाया है। वे उस व्यक्ति के चरणों में गिर पड़े।


इतने में डूबा हुआ एक आदमी भी बचकर नदी से निकल आया। अब संत को किसी में भी दोष दिखाई नहीं पड़ता था। वे अब किसी को भी अपने से ऊँचा या नीचा नहीं मानते थे।

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