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dharmik story in hindi /कैसा हो शासक?

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कैसा हो शासक?

 बहुत पुरानी बात है। एक राजा ने अपने पुत्र को पढ़ने के लिए एक गुरु के आश्रम में भेजा। गुरु बहुत योग्य और अनुशासन-प्रिय थे। 


उन्होंने राजकुमार को आश्रम के नियम और व्यवहार बता दिए और राजकुमार को आश्रम में रख लिया। 


 गुरु ने राजकुमार के शिक्षा देने में रुचि ली और शिष्य ने भी पूरी रुचि के साथ आश्रम के नियमों का पालन करते हुए शिक्षा ग्रहण की। जब शिक्षा पूर्ण हो गई तो राजा को गुरुजी ने यह संदेश भेज दिया।


राजा उस संदेश के अनुसार अपने पुत्र को लेने आश्रम पर आया। गुरु ने राजा का यथोचित सम्मान करने के बाद उसके पुत्र की खूब प्रशंसा की। 


उस समय वहाँ आश्रम के सभी शिष्य उपस्थित थे। राजकुमार ने गुरु के चरणों में प्रणाम करके विदा माँगी तो गुरुजी ने कहा-“बेटा जाने से पहले मेरी छड़ी लाकर मुझे दे दो।"

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राजकुमार ने उनकी छड़ी लाकर उन्हें दे दी। छड़ी लेकर गुरुजी खड़े हुए और सबके सामने उन्होंने राजकुमार की पीठ पर कसकर दो छड़ियाँ जमा दीं। 


गुरु के इस व्यवहार से सभी शिष्यों को बड़ा आश्चर्य हुआ क्योंकि छड़ी से मारने की बात तो दूर, आज तक उन्होंने किसी शिष्य को डाँटा तक न था। वे सभी शिष्यों से पुत्र के समान व्यवहार करते थे।


गुरु द्वारा पीठ पर दो छड़ियों की मार खाकर राजकुमार तनिक भी विचलित नहीं हुआ। वह इस प्रकार खड़ा रहा मानो कुछ भी न हुआ हो। लेकिन राजा को यह सहन नहीं हुआ और उसे क्रोध आ गया' आवेश में आते हुए गुरु से कहा-“आचार्यश्री!


आपने मेरे बेटे को कसकर दो छड़ियाँ पीठ पर जड़ दीं, आखिर क्यों? क्या अपराध मेरे बेटे ने कर दिया, मेरी समझ में यह बात नहीं आई।"


गुरु मन्द-मन्द मुस्कराये और बोले- “राजन्! यह बात आपकी समझ में आने वाली नहीं है। आपका बेटा इन बैठे हुए शिष्यों में सबसे अच्छा है।


यह बहुत ही विनम्र एवं आज्ञाकारी भी है। इसने सब कुछ पढ़ भी लिया है। लेकिन इसकी शिक्षा का अन्तिम पाठ अभी पूरा नहीं हुआ था। अब वह पूरा हो गया है। अब यह आपके साथ घर जा सकता है।"

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राजा ने फिर कहा- “आचार्यश्री! मैं अब भी आपकी बात को समझ नहीं पाया।"


गुरुजी ने समझाया-“महाराज! आप तो अपनी प्रजा पर शासन करते हैं। प्रजाजनों को कठोर दंड देने में आप तनिक भी नहीं हिचकते।


आपका यह बालक आने वाले समय में आपका स्थान लेगा और प्रजा पर शासन करेगा। आपकी तरह इसको भी दूसरों को दंड देना ही होगा। उस वक्त के लिए इसको इतना अनुभव तो होना ही चाहिए कि किसी को दंड देते समय उसके मन की दशा क्या होती है।"


गुरुवर थोड़ी देर रुके और फिर कहने लगे- “राजन्! सफल शासक वही होता है जो दूसरों की पीड़ा की अनुभूति को ठीक तरह से समझ सकता है।


मैंने अपने प्रिय शिष्य इस राजपुत्र को यही अनुभव कराया है।" आचार्यश्री की बात सुन और समझकर राजा ने उनके चरणों में अपना मस्तक टिका दिया।

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