kahani sangrah book
(माँ का चाँटा, चाँटे से शिक्षा)
आर्य समाज के संस्थापक महर्षि दयानन्द एक बार ट्रेन से यात्रा कर रहे थे। जिस बोगी में वे बैठे थे, उसी में उनके समीप ही एक महिला भी अपनी बच्ची के साथ यात्रा कर रही थी।
किसी स्टेशन पर गाड़ी रुकी तो दयानन्द जी ने फल बेचने वाले से कुछ सेब खरीद लिये।
गाड़ी चलने लगी और दयानन्द जी सेब खाने लगे। महिला की बच्ची उन्हें सेब खाते देख रही थी।
स्वामी जी ने स्नेहवश एक सेब उस बच्ची को देना चाहा पर बालिका ने उसे स्वीकार नहीं किया। उन्होंने सेब कई बार बच्ची की ओर बढ़ाया और ले लेने का आग्रह किया तो बच्ची की माँ ने सेब लेने को कहा। माँ के कहने से बच्ची ने सेब ले लिया।
सेब लेकर जैसे ही बच्ची ने सेब खाना चाहा तो उसकी माँ ने उसके मुँह पर चटाक से एक चाँटा जड़ दिया। लड़की के हाथ से सेब छूट गया और चाँटे की पीड़ा से हक्की-बक्की होकर रोने लगी।
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माँ के इस व्यवहार से दयानन्द जी भी सकते की स्थिति में पहुँच गये। वे सोचने लगे- “मैंने लड़की को सेब दिया, यह बात महिला को अच्छी नहीं लगी।"
उन्होंने चुप रहने का प्रयत्न किया लेकिन बच्ची की आकृति और उसकी माँ के चेहरे पर उभरे क्रोध को देखकर उनसे रहा नहीं गया।
उन्होंने महिला से कहा-“सुभगे! आपने इस बच्ची को व्यर्थ ही चॉटा जड़ दिया। आखिर इसने सेब लेकर कौन सा अपराध कर दिया? आखिर आपकी अनुमति मिल जाने पर ही तो उसने सेब लिया था।"
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महिला बोली-“यह तो ठीक है कि इसने मेरे कहने पर ही सेब लिया; लेकिन सेब ले लेने के साथ इसे आपके लिए धन्यवाद कहना चाहिए था, जो इसने नहीं कहा। क्या इसका यह अपराध नहीं है?"
दयानन्द जी इस कथन को सुनकर स्तब्ध एवं चकित हो गये। इस घटना का उन पर इतना प्रभाव पड़ा कि वे जीवनभर उपकारी लोगों का धन्यवाद करते रहे। जीवन भर वे इस शिक्षा को और इस दृश्य को भूल नहीं सके।