kahani sangrah in hindi
(अधिकार तेरा है कर्मों में, फल पाने का अधिकार नहीं)
प्रसिद्ध कथावाचक रमेश भाई ओझा से कथा के बीच में किसी व्यक्ति ने प्रश्न किया-“आपने कहा कि भगवान की इच्छा के बिना एक तिनका भी नहीं हिलता।
अतः आपके इस सिद्धान्त के अनुसार चोर चोरी करता है तो भगवान की इच्छा से ही करता है। एक व्यक्ति किसी अन्य व्यक्ति की हत्या करता है तो वह भगवान की इच्छा से ही करता है।
यदि सब कुछ भगवान की ही इच्छा से होता है तो चोरी भी भगवान ही कराते हैं और हत्या भी भगवान ही कराते हैं। फिर इन अपराधों के लिए व्यक्ति को दंड क्यों दिया जाता है? उसे सब दंड क्यों देते हैं? सभी कार्यों की प्रेरणा तो सबको परमात्मा ही देते हैं।"
ओझा जी ने उस व्यक्ति, को बड़े सहज रूप से समझाया-“एक बात समझ लो। कर्म करने में जीव स्वतंत्र है। जीव को परमात्मा ने कर्म करने का अधिकार दिया है-'तू चाहे पुण्य के कर्म कर चाहे पाप के कर्म कर। परमात्मा पाप के कार्यों को करने की प्रेरणा नहीं देता।
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वास्तव में जब हम पाप करते हैं, तो भीतर से हमें कोई रोकता है कि यह पाप है, ऐसा नहीं करना चाहिए। यह परमात्मा ही कहता है।
पर हम उसकी सुनते नहीं। सुनते इसलिए नहीं कि कर्म करने में हम स्वतंत्र हैं। इसलिए भगवान कहता है कि यदि कर्म में तू स्वतंत्र है और पाप कर्म ही करना चाहता है तो तू कर। लेकिन कर्म का फल पाने का अधिकार तुझे नहीं है।
'अधिकार तेरा है, कर्मों में, फल पाने का अधिकार नहीं।' अत: तू पाप कर्म करेगा तो उसका फल भी तुझे भोगना ही पड़ेगा।"
ओझा जी ने आगे समझाया-“राम के पिता दशरथ जी कर्म के सिद्धान्त से वंचित नहीं रहे। उन्हें भी कर्म का फल भोगना पड़ा। पुत्र के वियोग में उनके प्राण गये।
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लेकिन राम के वियोग में जब उनके प्राण निकल गये तो वे धन्य हो गये क्योंकि यह उनके सत्य और प्रेम का प्रमाण था। उन्होंने प्राण त्यागने से पूर्व राम नाम का उच्चारण किया था।"
उन्होंने उस व्यक्ति को समझाते हुए आगे कहा-“बात तब की है जब भारत में अंग्रेजों का शासन था। एक महात्मा जी किसी अपराध के तहत पकड़े गये। यह मथुरा की बात है।
न्यायाधीश अंग्रेज था लेकिन वह रामायण पर बहुत श्रद्धा रखता था। महात्मा को पता था कि अंग्रेज न्यायाधीश रामायण का बड़ा प्रेमी है। जब न्यायाधीश ने अपराधी महात्मा से पूछा-"क्या आप अपना अपराध स्वीकार करते हैं?"
महात्मा ने कह दिया- “सबको प्रेरणा देने वाले तो परमात्मा ही हैं। उनकी प्रेरणा से यदि हमसे ऐसा अपराध हो गया तो अब जैसी राम जी की इच्छा।"
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न्यायाधीश बोले-“हम भी उसी राम जी की इच्छा से तुमको छह महीने की सज़ा देते हैं। तुम कहते हो उनकी प्रेरणा से ऐसा कार्य हो गया तो हम कहते हैं कि उन्हीं की प्रेरणा से तुम्हें दण्ड मिल गया।
कहने का अर्थ यह है कि व्यक्ति अपनी इच्छा से जैसे कर्म करना चाहे, कर सकता है। कर्म करने में वह स्वतंत्र है पर फल उसे उसके कर्मों के अनुसार ही मिलेगा।
पाप कर्म करेगा तो उसे उसका फल भोगना ही होगा।" ओझा जी के सामने वह व्यक्ति नतमस्तक हो गया।