F आत्म चिन्तन - bhagwat kathanak
आत्म चिन्तन

bhagwat katha sikhe

आत्म चिन्तन

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आत्मचिन्तन

आत्मचिन्तन
(डॉ० श्रीबालकृष्णजी शर्मा, एम०एस-सी०, पी-एच०डी०)

शास्त्रोंका सुनिश्चित मत है कि यह मनुष्य-जन्म अत्यन्त ही दुर्लभ है, लेकिन विडम्बना है कि मनुष्य-जन्म लेनेके पश्चात् हम अपने मार्गसे भटक गये हैं, अपने स्वरूपको ही भूल गये हैं, लाखों जन्मोंसे यहाँसे वहाँ भटक रहे हैं, ईश्वर बार-बार अवसर देते हैं कि हम अपनेको जानें, किंतु हमारी दृष्टि उस ओर जाती ही नहीं। 

हम ईश्वरके अंश होते हुए भी उनको भूले हुए हैं और संसार जो कि अनित्य है उसको अपना माने हुए हैं, यह जानकर भी कि एक दिन हमें यह परिवार, धन, मकान आदि सब कुछ छोड़कर चले जाना है, केवल यहाँपर किये गये कर्मोंका लेखा-जोखा ही हमारे साथ जायगा। 

इसलिये अभी भी समय है कि हम जाग जायँ और आत्मचिन्तन, आत्म- निरीक्षण करना शुरू करें। इस आत्मचिन्तन रूप परमकल्याणकारी साधनके विषयमें देवर्षि नारदजीने शुकदेवजीको उपदेश देते हुए महाभारतके शान्तिपर्वमें इस प्रकार बताया है-
विद्याके समान कोई नेत्र नहीं है, सत्यके समान कोई तप नहीं है, रागके समान कोई दुःख नहीं है और त्यागके समान कोई सुख नहीं है। पापकर्मोंसे दूर रहना, सदा पुण्यकर्मोंका अनुष्ठान करना, साधु पुरुषोंके-से बर्ताव और सदाचारका पालन करना-यह कल्याणका सर्वोत्तम साधन है। 

जहाँ सुखका नाम भी नहीं है, ऐसे इस मानव-शरीरको पाकर जो विषयोंमें आसक्त रहता है, वह मोहको प्राप्त होता है। विषयोंका संयोग दुःखरूप ही है; अतः वह दुःखोंसे छुटकारा नहीं दिला सकता-

मानुष्यमसुखं प्राप्य यः सज्जति स मुह्यति। 
नालं स दुःखमोक्षाय संयोगो दुःखलक्षणम्॥ 
(महाभारत, शान्तिपर्व ३२९ । ८) 

विषयासक्त पुरुषकी बुद्धि चञ्चल होती है, वह मोहजालका विस्तार करती है और मोह-जालसे बँधा हुआ पुरुष इस लोक और परलोकमें भी दुःख ही भोगता है। 

जिसे कल्याणप्राप्तिकी इच्छा हो, उसे प्रत्येक उपायसे काम और क्रोधको दबाना चाहिये; क्योंकि ये दोनों दोष  कल्याणका नाश करनेके लिये उद्यत रहते हैं। 

क्षमा सबसे बड़ा बल है, आत्माका ज्ञान सबसे बड़ा ज्ञान है और सत्यसे बढ़कर तो कुछ है ही नहीं। सत्य बोलना सबसे श्रेष्ठ है, किंतु हितकारक बात कहना सत्यसे भी बढ़कर है। जिससे प्राणियोंका अत्यन्त हित होता है, वही सत्य है। 

जिसके मनमें कोई कामना नहीं है, जो किसी वस्तुका संग्रह नहीं करता तथा जिसने सब कुछ त्याग दिया है, वही विद्वान् है। 

जो अपने वशमें की हुई इन्द्रियोंके द्वारा अनासक्त भावसे विषयोंका अनुभव करता है, जिसका चित्त शान्त, निर्विकार और एकाग्र है तथा जो आत्मीय कहलानेवाले देह और इन्द्रियों के साथ रहकर भी उनसे एकाकार न होकर विलगसा ही रहता है, वह मुक्त है और उसे बहुत शीघ्र कल्याणकी प्राप्ति होती है। 

किसीकी हिंसा न करे, सबके साथ मित्रताका भाव रखे और यह मनुष्य-जन्म पाकर किसीके साथ वैर न करे। जो आत्मतत्त्वका ज्ञाता तथा मनको वशमें रखनेवाला है, उसे चाहिये कि किसी वस्तुका संग्रह न करे, संतोष रखे और कामना तथा चञ्चलताका त्याग कर दे-

आकिञ्चन्यं सुसंतोषो निराशीस्त्वमचापलम्। 
एतदाहुः परं श्रेय आत्मज्ञस्य जितात्मनः॥
(महाभारत, शान्तिपर्व ३२९ । १९) 

इससे परम कल्याणकी सिद्धि होती है। जिन्होंने भोगोंका त्याग कर दिया है, वे कभी शोकमें नहीं पड़ते। जो परमात्माको जीतनेकी इच्छा रखता हो, उसे तपस्वी, जितेन्द्रिय, मननशील, संयतचित्त और विषयोंमें अनासक्त रहना चाहिये। जीव सदा कर्मोंके अधीन रहता है। 

वह शुभकर्मोके अनुष्ठानसे देवता होता है, शुभअशुभ दोनोंके आचरणसे मनुष्य-योनिमें जन्म पाता है और केवल अशुभ कर्मोंसे पशु-पक्षी आदि नीच योनियोंमें जन्म ग्रहण करता है। 

उन-उन योनियोंमें जीवको सदा जरा-मृत्यु तथा नाना प्रकारके दुःखोंका भोग करना पड़ता है। इस प्रकार संसारमें जन्म लेनेवाला प्रत्येक प्राणी संतापकी आगमें पकाया जाता है-

शुभैर्लभति देवत्वं व्यामिश्रर्जन्म मानुषम्। 
अशुभैश्चाप्यधो जन्म कर्मभिर्लभतेऽवशः॥ 
तत्र मृत्युजरादुःखैः सततं समभिद्रुतः। 
संसारे पच्यते जन्तुस्तत्कथं नावबुद्ध्यसे । 
(महाभारत, शान्तिपर्व ३२९ । २५-२६) 

देवर्षि नारदजी आगे बताते हैं-यह देह पञ्चभूतोंका घर है। इसमें हड्डियोंके खम्भे लगे हैं, यह नस-नाड़ियोंसे बँधा हुआ, रक्तमांससे लिपा हुआ और चमड़ेसे मढ़ा हुआ है। इसमें मल-मूत्र भरा है, जिसके कारण दुर्गन्ध आती है। 

यह जरा और शोकसे व्याप्त, रोगोंका आश्रय, दुःखरूप, रजोगुणरूपी धूलसे ढका हुआ और अनित्य है, अत: हमें इसकी आसक्तिका त्याग कर देना चाहिये। 

जहाँ चित्तकी आसक्ति बढ़ने लगे, वहीं दोषदृष्टि करनी चाहिये और उसे अनिष्टको बढ़ानेवाला समझना चाहिये। ऐसा करनेपर उससे शीघ्र ही वैराग्य हो जाता है-

दोषदर्शी भवेत् तत्र यत्र रागः प्रवर्तते।
अनिष्टवर्धितं पश्येत् तथा क्षिप्रं विरज्यते॥
(महाभारत, शान्तिपर्व ३३०।६) 

अतः मनुष्य यदि भोगोंसे विरक्त होकर परमात्माके चिन्तनमें लग जाता है, तब वह परमात्माको प्राप्त कर लेता है।

मुण्डकोपनिषदें आया है कि थोड़ा-सा विचार करनेपर प्रत्येक बुद्धिमान् मनुष्यकी समझमें यह बात आ जाती है कि इस प्रत्यक्ष दिखायी देनेवाले जगत्के रचयिता और परमाधार कोई एक परमेश्वर अवश्य हैं। 

इस प्रकार जिनमें यह सम्पूर्ण जगत् स्थित हुआ प्रतीत होता है, परम विशुद्ध प्रकाशमय धामस्वरूप परब्रह्म परमात्माको समस्त भोगोंकी कामनाका त्याग करके निरन्तर उनका ध्यान करनेवाला साधक जान लेता है। 

यह बात निश्चित है कि जो मनुष्य उन परम पुरुष परमात्माकी उपासना करते हैं और एकमात्र उन्हींको चाहते हैं, वे सर्वथा पूर्ण निष्काम होकर रहते हैं। 

किसी प्रकारके भोगोंमें उनका मन नहीं अटकता, अतः वे इस रजोवीर्यमय शरीरको लाँघ जाते हैं। उनका पुनर्जन्म नहीं होता। इसलिये उन्हें बुद्धिमान् कहा गया है; क्योंकि जो सारवस्तुके लिये असारको त्याग दे, वही बुद्धिमान् है -

स वेदैतत्परमं ब्रह्म धाम यत्र विश्वं निहितं भाति शुभ्रम्। 
उपासते पुरुषं ये ह्यकामा स्ते शुक्रमेतदतिवर्तन्ति धीराः॥

(मुण्डकोपनिषद् द्वि०खं० १) 
जो कोई भी उस परब्रह्म परमात्माको जान लेता है, वह ब्रह्म ही हो जाता है। सब प्रकारके शोक और चिन्ताओंसे सर्वथा पार हो जाता है, सम्पूर्ण पापसमुदायसे सर्वथा तर जाता है, हृदयमें स्थित सब प्रकारके संशय, विपर्यय, देहाभिमान, विषयासक्ति आदि ग्रन्थियोंसे सर्वथा छूटकर अमर हो जाता है। जन्म-मृत्युसे रहित हो जाता है-

स यो ह वै तत्परमं ब्रह्म वेद ब्रह्मैव भवति नास्याब्रह्मवित्कुले भवति। तरति शोकं तरति पाप्मानं गुहाग्रन्थिभ्यो विमुक्तोऽमृतो भवति॥
(मुण्डकोपनिषद् ३।२।९) 

आज अधिकांश मनुष्य अशान्त हैं, चिन्ताओंसे ग्रस्त हैं, जिस शान्ति और परमात्माको बाहर जगह-जगह ढूँढ़ते हैं, वे परमदेव परब्रह्म परमात्मा अपने ही भीतर हृदयमें अन्तर्यामीरूपसे स्थित हैं। इनको जाननेके लिये कहीं बाहर जानेकी आवश्यकता नहीं है। 

अपने ही भीतर स्थित परमात्माको जाननेकी चेष्टा करनी चाहिये; क्योंकि इनसे बढ़कर जाननेयोग्य दूसरी कोई वस्तु है ही नहीं। इन एकको जाननेसे ही सबका ज्ञान हो जाता है, ये ही सबके कारण और परमाधार हैं। ,

श्वेताश्वतरोपनिषद्में आया है कि जिस प्रकार तिलोंमें तेल, दहीमें घी, ऊपरसे सूखी हुई नदीके भीतरी स्रोतोंमें जल तथा अरणियोंमें अग्नि छिपी रहती है, उसी प्रकार परमात्मा हमारे हृदयरूप गुफामें छिपे हैं। 

जिस प्रकार अपने-अपने स्थानमें छिपे हुए तेल आदि उनके लिये बताये हुए उपायोंसे उपलब्ध किये जा सकते हैं, उसी प्रकार जो कोई साधक विषयोंसे विरक्त होकर सदाचार, सत्यभाषण तथा संयमरूप तपस्याके द्वारा साधन करता हुआ उनका निरन्तर ध्यान करता रहता है, उनके द्वारा वे परब्रह्म परमात्मा भी प्राप्त किये जा सकते हैं।

मनुष्यरूपी शरीरमें जीवात्मा और परमात्मा दोनों मौजूद हैं, लेकिन अनेक जन्मोंके कर्मोंके संस्कारस्वरूप हम अपने वास्तविक स्वरूपको भूल गये हैं। 

जैसे बहुत कीमती रत्न मिट्टीमें सन जानेपर अपने वास्तविक रूपसे विमुख हो जाता है और उसकी धूल-मिट्टी हटानेपर उसमें चमक आ जाती है, उसी प्रकार ध्यान-योगके द्वारा हम अपने वास्तविक रूपको पहचान पाते हैं और जैसे ही हम भोग-विलास, कामनाओं, आसक्ति आदिको छोड़कर ईश्वरकी तरफ देखते हैं अर्थात् जीवात्मा परमात्माकी तरफ मुँह कर लेता है, तब तत्काल ही वह शोकरहित हो जाता है।

जीवनमें सुखकी अपेक्षा दुःख ही अधिक है किंतु जो सुख और दुःख दोनोंकी ही चिन्ता छोड़ देता है, वह अक्षय ब्रह्मको प्राप्त हो जाता है। 

मनुष्य धनका संग्रह करते- करते पहलेकी अपेक्षा ऊँची स्थितिको प्राप्त होकर भी कभी तृप्त नहीं होते, वे और अधिककी आशा लिये ही मर जाते हैं, इसलिये विद्वान् पुरुष सदा सन्तुष्ट रहते हैं। 

संग्रहका अन्त है विनाश। ऊँचे चढ़नेका अन्त है नीचे गिरना। संयोगका अन्त है वियोग और जीवनका अन्त है मरण।

तृष्णाका कभी अन्त नहीं होता। संतोष ही परम सुख है, अतः विवेकी पुरुष इस लोकमें संतोषको ही परम धन मानते हैं-

सर्वे क्षयान्ता निचयाः पतनान्ताः समुच्छ्रयाः। 
संयोगा विप्रयोगान्ता मरणान्तं हि जीवितम्॥ 
अन्तो नास्ति पिपासायास्तुष्टिस्तु परमं सुखम्। 
तस्मात् संतोषमेवेह धनं पश्यन्ति पण्डिताः॥
(महाभारत, शान्तिपर्व ३३० । २०-२१) 

आयु लगातार बीत रही है, वह कभी विश्राम नहीं लेती। जब अपना शरीर ही अनित्य है तो दूसरी किस वस्तुको नित्य समझा जाय। 

जो मनुष्य सब प्राणियोंके भीतर मनसे परे परमात्माकी स्थिति जानकर उन्हींका चिन्तन करते हैं, वे संसार-यात्रा समाप्त होनेपर परमपदका साक्षात्कार करते हुए शोकके पार हो जाते हैं।

अतः हमें आजसे ही आत्मचिन्तन शुरू कर देना चाहिये ताकि यही जन्म हमारा अन्तिम जन्म बन सके और हम संसारके आवागमनसे छूट सकें।

आत्मचिन्तन

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