बुराईसे बचनेका उपाय burayi se bachne ka upay hindi
(नित्यलीलालीन श्रद्धेय भाईजी श्रीहनुमानप्रसादजी पोद्दार)
मनुष्य जब कोई कामना करता है और वह प्राप्त नहीं होती है तो उसके मनमें जो चाह, कामना है वह क्रोधका, दुःखका और क्षोभका रूप धारण कर लेती है
मनुष्य जब कोई कामना करता है और वह प्राप्त नहीं होती है तो उसके मनमें जो चाह, कामना है वह क्रोधका, दुःखका और क्षोभका रूप धारण कर लेती है
'कामात् क्रोधोऽभिजायते।' (गीता २।६२)
इससे उस अज्ञानजनित आवेशके कारण उसके मनमें कल्पना होती है कि अमुक-अमुक व्यक्तियोंने मेरे कार्यमें विघ्न डाला, नहीं तो कार्य सम्पन्न हो जाता। यह कामनासे होनेवाला बड़ा अनर्थ है।कामना दूसरोंको व्यर्थ ही दोषी ठहरा देती है। जब किसीमें हमें दोषबुद्धि हो जाती है तो उससे द्वेष हो जाता है। दोषबुद्धि द्वेष पैदा करती है जिससे बिना हुए ही नये-नये दोष दिखायी देते हैं।
अतः किसीके सम्बन्धमें कोई भी विचार करते हुए पहले अपनेको उस स्थितिमें ले जायँ। बुद्धिमान् पुरुष विचार करते हैं कि इस अवस्थामें हम होते तो हम क्या करते? बहुत बार परिस्थितिवश न चाहते हुए भी अप्रिय कार्य हो जाता है।
मनुष्य एक कमजोर प्राणी है जो दूसरेकी कमजोरीपर बहुत जल्दी ध्यान देता है और अपनी कमजोरियोंको सहन करता रहता है। तुलसीदासजीने (विनय-पत्रिका १४३ में) कहा है-
आप पापको नगर बसावत, सहि न सकत पर खेरो॥
उन्होंने अपनेपर कहा कि मैं स्वयं ऐसा हूँ कि अपने तो पापोंका नगर बसा लेता हूँ और दूसरोंका खेड़ा (गाँव) भी सहन नहीं कर सकता। जबकि होना चाहिये इसके विपरीत। अपना जरा-सा भी पाप या भूल सहन नहीं होनी चाहिये; क्योंकि यह स्वयंके लिये हानिकारक है।
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जो अपनी भूलोंको नहीं समझता और उन्हें बनाये रखता है वह बुद्धिमान् नहीं है। जो दूसरोंके दोषोंपर बात-बातमें ध्यान दे और अपने दोषोंकी ओरसे सदा उदासीन रहे, वह मनुष्य कभी अपनी उन्नति नहीं कर सकता है।
हमें अपनी उन्नति करनी है और इसका उपाय है कि हम अपने दोषोंको दूर करें। लोग कहते हैं कि यह हमारा स्वभाव है, नहीं बदलता।
तो जब अपना स्वभाव जो बहुत कुछ हमारे अधीन है, जिससे हमें स्वयं हानि-लाभ है जब हम इसे बदलनेमें असमर्थ हैं तो दूसरेका स्वभाव बदलना कैसे सम्भव होगा? मनुष्यको चाहिये कि अपने स्वभावको बदलनेकी चेष्टा करे।
अपने दोषोंके प्रति दोषबुद्धि प्रबल करके शनै-शनैः अभ्याससे, संगसे और मनमें दृढ़ निश्चय करके परिवर्तनका प्रयास करे।
यदि कोई नशा करता है और उससे मुक्ति चाहता है तो नशा न करनेवालेका संग करके मनमें दृढ़ निश्चय कर ले कि इसे छोड़ना है और धीरे-धीरे छोड़नेका अभ्यास करे तो नशेसे मुक्ति मिल जायगी।
लेकिन वह पहले ही मनमें कमजोरी कर लेता है कि मुझसे छूटना मुश्किल है। जैसे कोई पहले ही तय कर ले कि मेरा तो झूठ बोले बिना काम नहीं चलेगा तो उसका काम नहीं चल सकता।
इस प्रकारका निश्चय जहाँ परिवर्तनके लिये मानसिक रूपसे तैयार ही न हो वहाँ परिवर्तन नहीं हो सकता। बुराईमें जब मनुष्यका निश्चय होता है तो वह बहुत बुरा होता है। निश्चय भलाईमें होना चाहिये कि अमुक सत्कार्य मैं अवश्य करूँगा।
भगवान् बुद्ध जब बोधगयामें वटवृक्षके नीचे बैठे तो उन्होंने उसी समय प्रण कर लिया कि चाहे शरीर रहे या जाय जबतक मुझे बोध नहीं होगा, तबतक यहाँसे नहीं उतूंगा।
भगवान् बुद्ध जब बोधगयामें वटवृक्षके नीचे बैठे तो उन्होंने उसी समय प्रण कर लिया कि चाहे शरीर रहे या जाय जबतक मुझे बोध नहीं होगा, तबतक यहाँसे नहीं उतूंगा।
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बस, बोध हो गया। यह अपना जो निश्चय है यह बहुत बड़ी सहायता करता है। बालक ध्रुव जब घरसे निकला तो माताको वेदना हुई कि छोटा बच्चा है इसे परेशानी होगी।
ध्रुवका मातासे स्नेह तो था, परंतु भगवान्में भरोसा था इसलिये घरसे निकल गया। ऐसे कार्यमें गुरु चाहिये हमलोग जो गुरु खोजते हैं और गुरु नहीं मिलते लेकिन खोजते कहाँ हैं ? जब गुरुकी आवश्यकता सन्मार्ग बतानेकी होती है तो भगवान् भेज देते हैं।
ध्रुवका निश्चय पक्का था तो उसे रास्तेमें नारदजी गुरु मिल गये। उन्होंने उसकी परीक्षा ली, उसके निश्चयको परखा। कहा- -'मेरे साथ चलो, मैं राजासे कहकर तुम्हें राज्य दिलवा दूंगा।' उसने कहा- -'माँने कहा है कि भगवान्से लेना है आपसे नहीं लेना है।'
फिर नारदजीने उसे भय दिखाया कि जंगलमें जा रहे हो वहाँ घर नहीं, माँ नहीं, जंगली जानवर रहते हैं, आँधी-पानी आयेगा तुम्हें बहुत कष्ट होगा, परंतु ध्रुवने कहा-'वह सब तो ठीक है लेकिन भगवान् तो सब देखते हैं।'
उसका बालहठ देख और उसके पक्के निश्चयको देख नारदजीने उसे वहीं मन्त्र भी दिया और वरदान भी दिया। नारदजीद्वारा प्रदत्त प्रसिद्ध द्वादशाक्षर मन्त्र 'ॐ नमो भगवते वासुदेवाय' ध्रुवको मिला।
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नारदजीद्वारा दिया गया और दृढ़ निश्चयी ध्रुवद्वारा लिया गया। इसकी विशेष महत्ता है और छः माहमें ही मन्त्र सिद्ध हो गया तथा मन्त्रके देवता भगवान् प्रकट हो गये। इस प्रकार जहाँ निश्चय अच्छे कार्यमें होता है वहाँ भगवान् सहायता करते हैं और जहाँ निश्चय बुरे कार्यमें होता है, वहाँ चारों ओरसे राक्षस आकर सहायता करते हैं।
जिस प्रकारका हमारा मन, वृत्ति और निश्चय होगा उसी प्रकारकी हमें अन्तरिक्षसे सहायता प्राप्त होती है। थियोसोफी पंथके लोगोंने भी इसे माना है कि अन्तरिक्षमें अच्छे-बुरे अन्तरिक्षचारी जीव घूमते रहते हैं और वे अपने- अपने ढंगके जो लोग मिलते हैं उनकी सहायता करते रहते हैं।
इसलिये जब हमारा सत्कार्यमें दृढ़ निश्चय होगा तो देवताओंसे, भगवान्से, अच्छी सहायता मिलेगी, जो बाधा होगी उसे भगवत्कृपा हटा देगी।
लेकिन जबतक निश्चय पक्का नहीं होगा, तबतक हम कहेंगे कि हमारा अभ्यास छूटनेका नहीं, हमारा स्वभाव बदलेगा नहीं। यदि मनुष्य चाहे तो वह देवता बन सकता है। भगवान्के समीप जा सकता है उसे यह अधिकार और सामर्थ्य भगवान्ने दिया है। भगवान्की कृपा तो उसे प्राप्त ही है।
'साधन धाम मोच्छ कर द्वारा' यह मनुष्य शरीर साधनका धाम है। इसमें तमाम साधन भरे हैं जिसके योग्य इसका जो है वह अपनाये। साधन अनेक हैं परंतु साध्य एक ही ले है। साधन सरल भी है और कठिन भी है और दोनोंके द्वारा तो लक्ष्य प्राप्त किया जा सकता है।
'साधन धाम मोच्छ कर द्वारा' यह मनुष्य शरीर साधनका धाम है। इसमें तमाम साधन भरे हैं जिसके योग्य इसका जो है वह अपनाये। साधन अनेक हैं परंतु साध्य एक ही ले है। साधन सरल भी है और कठिन भी है और दोनोंके द्वारा तो लक्ष्य प्राप्त किया जा सकता है।
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अपनी-अपनी रुचि और सिद्धि शक्तिके द्वारा जितना कर सकता है उतना करना चाहिये। परंतु करनेमें बेईमानी, आलस्य तथा प्रमाद न करे। इच्छा प्रबल रखे। इच्छा सच्ची होनी चाहिये और निष्ठा रहे।
इच्छामें यदि निष्ठा है तो वह वस्तु दैवी शक्तिसे प्राप्त हो जाती है। निषादपुत्र एकलव्यकी इच्छा हुई कि मैं अर्जुनके समान धनुर्धर, बाणविद्यामें निपुण बनूँ। उस कालमें परशुरामजीको छोड़कर द्रोणाचार्यके समान इस विद्याका ज्ञाता कोई नहीं था।
परंतु परशुरामजी सिखाते नहीं थे इसलिये एकलव्य द्रोणाचार्यसे सीखनेका दृढ़ निश्चय करके उनके पास गया। द्रोणके आनेका कारण पूछनेपर उसने अपना मन्तव्य निवेदन किया। द्रोणने कहा कि मैं अर्जुनको वचन दे चुका हूँ कि तुम्हारे समान किसीको सिखाऊँगा नहीं।
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एकलव्यने कहा-मुझे आपहीसे सीखना है तो उन्होंने उत्तर दिया कि मैं सिखाऊँगा नहीं तो कैसे सीखोगे? फिर एकलव्यने द्रोणका विग्रह मनमें बैठाया, निश्चय पक्का, श्रद्धा पक्की और जंगलमें जाकर अपनी कुटियामें मिट्टीकी द्रोणकी मूर्ति बनाकर उसके सामने रोज प्रयोग करे और कहे कि आपकी कृपासे मेरा यह प्रयोग सिद्ध हो तथा जैसा होना चाहिये वैसी स्फुरणा मेरे मनमें हो जाय।
जो ठीक हो वह विचार मेरे मनमें आ जाय और ठीक ऐसा ही होने लगा। जब वह निपुण हो गया तो एक दिन कहीं जा रहा था तो कुत्ता भौंक रहा था, उसका भौंकना बंद करना था।
संयोगवश अर्जुन भी जा रहे थे, परंतु उनके ध्यानमें यह बात नहीं आयी और एकलव्यने बाणोंसे उसके मुँहको भर दिया कि चोट भी नहीं लगी और भौंकना भी बंद हो गया।
तब अर्जुनने साश्चर्य उससे पूछा कि भाई! यह विद्या किससे सीखी? उसने उत्तर दिया कि द्रोणाचार्यसे। अर्जुनद्वारा द्रोणाचार्यसे कहनेपर एकलव्यको बुलाया गया और उससे पूछा कि कहाँसे सीखा तो उसने उत्तर दिया कि आपसे।
मैंने निश्चय कर लिया था कि धनुर्विद्या आपहीसे सीखूगा और उसने सारा वृत्तान्त कह दिया। मतलब मात्र इतना है कि यदि आदमी निश्चय कर कि मुझे अमुक कार्य करना है तो बुरे कार्यका निश्चय बहुत बुरा, पर यदि अच्छे कार्यका निश्चय करे तो उसमें मिल जायगी। भगवान् भी सहायता करते हैं।
इसलिये हम जो कहते हैं कि यदि हमारा स्वभाव है उसे बदल नहीं सकते तो यह यथार्थ नहीं है। हम चाहते हैं कि अमुकका बर्ताव अच्छा नहीं है उसको बदले, अपना बदलनेकी गुंजाइश नहीं है।
इसलिये हम जो कहते हैं कि यदि हमारा स्वभाव है उसे बदल नहीं सकते तो यह यथार्थ नहीं है। हम चाहते हैं कि अमुकका बर्ताव अच्छा नहीं है उसको बदले, अपना बदलनेकी गुंजाइश नहीं है।
दूसरा अच्छा बने तब हम अच्छा बनेंगे। इस प्रकारकी आशा बिलकुल नरक है। दूसरेके अच्छा बननेको प्रतीक्षामें यदि हम पहले मर गये तो न वह बना न हम बने।
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जो अच्छा कार्य अपनेको करना है उसमें बिना किसीकी प्रतीक्षा किये हिम्मतके साथ आरम्भ कर देना चाहिये। जैसे भजन करना है, आजसे यह बुराई त्यागनी है, अमुक कर्मका त्याग करना है तो जहाँ साहसके साथ दृढ़ निश्चय हुआ वहाँ सफलताके मार्गमें अग्रसर हो जाते हैं। अटल दृढ़ निश्चय इस प्रकारका कि-
चन्द्र टरै सूरज टरै, टरै जगत् व्यवहार।
पर दृढ़ श्रीहरिश्चन्द्रको, टरै न सत्य विचार॥
इस प्रकार जैसे पतिव्रता सतीका विचार होता है वैसा दृढ़ निश्चय करे तो भगवान् अद्भुत सहायता करते हैं जिससे कार्य बहुत शीघ्र होता है।
अतः जहाँ-जहाँपर अपना कार्य न हो वहाँ-वहाँ जो दूसरेके दोष देखनेकी अपनी बुद्धि बन जाती उसका त्याग करे। दूसरेके साथ भलाई करते हुए यह न देखे कि पहले यह भलाई करेगा तब हम करेंगे।
किसीसे लड़ाई होनेपर वैमनस्य हो जानेपर मनुष्यका जो झूठा अहंकार है वह उसे बार-बार अच्छाईसे रोकता है, परंतु यदि साहससे विनम्र होकर अपने दोषके लिये क्षमा- याचना कर ले तो यह अति उत्तम है। द्वेष-वैर लेकर मरना बहुत बुरा है। किसी प्राणीसे किसी प्रकारका हमारे मनमें द्वेष-वैर न रहे।
हमारा बुरा हमारे अपने कर्मके अलावा और कोई कर ही नहीं सकता। यदि हमको हमारा बुरा होनेमें दूसरेका हाथ दिखता है तो भगवान्से प्रार्थना करें कि प्रभो! इसने जो हमारेपर वैरभाव बना रखा है इसको क्षमा करके इसकी बुद्धि ठीक कर दें जिससे यह पुनः ऐसा न करे।
अगर यह दुःखी हो तो इसके दुःखका निवारण करें। इससे भगवान् बड़े प्रसन्न होते हैं। हमको जो दुःख मिलना है वही मिलेगा। पर यदि हमने उसको बचा दिया, बड़े पापसे भगवान् से प्रार्थना करके तो उसकी सेवा की, भगवान्की सेवा की। भगवान्के संतानको हमने सुपथमें लगाने में सहायता की, सद्भावना की।
इसलिये निरन्तर यह ध्यान रखना चाहिये कि अपनी अच्छाईका त्याग न हो और अच्छाईकी पहल करने में संकोच न हो। निरन्तर अच्छा करना ही है।
इसलिये निरन्तर यह ध्यान रखना चाहिये कि अपनी अच्छाईका त्याग न हो और अच्छाईकी पहल करने में संकोच न हो। निरन्तर अच्छा करना ही है।
उमा संत कइ इहइ बड़ाई। मंद करत जो करइ भलाई॥
संतका तो यह चरित्र होता है कि बुरा करनेवालेका भला करे। बहुत बार ऐसा होता है कि हम सोचते हैं कि अमुकने हमारा बुरा कर दिया, परंतु बादमें मालूम होता है कि हमारी सोच गलत थी।
कभी-कभी अच्छा होनेपर भी हम अपनी दुर्बुद्धिसे बुरा मान लेते हैं। जैसे बच्चेको कड़वी दवा देनेपर वह रोता है और बुरा मानता है परंतु जब उसे होश आता है, सयाना होता है तब समझता है कि इसने मेरी प्राणरक्षा की है।
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इस प्रकार अनेक बार किसीके भला करनेपर भी, अपनी दृष्टि से प्रतिकूल दिखनेपर हम बुरा मान लेते हैं। अनेक बार कोई जानबूझकर बुरा नहीं करता। उससे बुरा हो जाता है।
कई बार हम मिथ्या ही कल्पना कर लेते हैं कि इसने बुरा किया जबकि इसमें उसका कोई हाथ ही नहीं। बुराई किसी औरने की और हम वहम किसी दूसरेके प्रति करने लगते हैं।
इसलिये निरन्तर इसका ध्यान रखना चाहिये कि दूसरेको बुरा कहनेसे, बुरा माननेसे पूर्व अपनेको देखें कि कहीं हममें ऐसी कोई बुराई है कि नहीं। यदि है तो हम दूसरेको कहनेसे पहले अपनेको ठीक करें-
बुरा जो देखन मैं चला, बुरा न मिलिया कोय।
अपने-आपको देखेंगे तब वास्तविकताका पता चलेगा। नेक बार दूसरेकी बुराई करनेकी हमारे मनमें आती है। कितनी बार दूसरोंका बुरा देखकर हमें खुशी होती है।
बुरा जो देखन मैं चला, बुरा न मिलिया कोय।
जो दिल खोजा आपना, मुझ-सा बुरा न होय॥
अपने-आपको देखेंगे तब वास्तविकताका पता चलेगा। नेक बार दूसरेकी बुराई करनेकी हमारे मनमें आती है। कितनी बार दूसरोंका बुरा देखकर हमें खुशी होती है। यह क्या हमारा अच्छापन है? योगदर्शनमें कहा गया है कि जब हमारे मनमें किसीके प्रति दोष आ गया तो वह दोष अपनेपर आयेगा। हमारा दोष हमीको जिम्मेवार बनायेगा। यह कर्मका सिद्धान्त है।
इसलिये कहीं भी कोई दोष आता हो तो उससे सावधानीपूर्वक बचना चाहिये। बचनेका उपाय है कि प्राणिमात्रमें भगवान् हैं ऐसा माने। जगत्की भलाई देखे। जगत्में जहाँ-जहाँ भलाई है उससे अपना योग कर ले और उस भलाईको ग्रहण करनेकी चेष्टा करे।