F वाग् गद्गदा द्रवते यस्य चित्तं - bhagwat kathanak
वाग् गद्गदा द्रवते यस्य चित्तं

bhagwat katha sikhe

वाग् गद्गदा द्रवते यस्य चित्तं

वाग् गद्गदा द्रवते यस्य चित्तं

 वाग् गद्गदा द्रवते यस्य चित्तं

वाग् गद्गदा द्रवते यस्य चित्तं
रुदत्यभीक्ष्णं हसति क्वचिच्च।
विलज्ज उद्गायति नृत्यते च
मद्भक्तियुक्तो भुवनं पुनाति॥
(श्रीमद्भा० ११ । १४ । २४) 

'जिसकी वाणी मेरे नाम, गुण और लीलाका वर्णन करती-करती गद्गद हो जाती है, जिसका चित्त मेरे रूप, गुण, प्रभाव और लीलाओंको याद करते-करते द्रवित हो जाता है, जो बारम्बार रोता रहता है, कभी-कभी हँसने लग जाता है, कभी लज्जा छोड़कर (मेरे प्रेममें मग्न हुआ पागलकी भाँति) ऊँचे स्वरसे गाने लगता है, तो कभी नाचने लग जाता है, ऐसा मेरा भक्त सारे संसारको पवित्र कर देता है।'

Ads Atas Artikel

Ads Center 1

Ads Center 2

Ads Center 3