F श्रीप्रियादासजीकृत भक्तिरसबोधिनी टीकाका मंगलाचरण - bhagwat kathanak
श्रीप्रियादासजीकृत भक्तिरसबोधिनी टीकाका मंगलाचरण

bhagwat katha sikhe

श्रीप्रियादासजीकृत भक्तिरसबोधिनी टीकाका मंगलाचरण

श्रीप्रियादासजीकृत भक्तिरसबोधिनी टीकाका मंगलाचरण

 श्रीप्रियादासजीकृत भक्तिरसबोधिनी टीकाका मंगलाचरण 

भक्तमालका मंगलाचरण bhaktamal manglacharan

महाप्रभु कृष्णचैतन्य मनहरनजू के चरण को ध्यान मेरे नाम मुख गाइये। 
ताही समय नाभाजू ने आज्ञा दई लई धारि टीका विस्तारि भक्तमाल की सुनाइये॥ 
 
कीजिये कवित्त बंद छंद अति प्यारो लगै जगै जग माहिं कहि वाणी विरमाइये। 
जानों निजमति ऐ पै सुन्यौ भागवत शुक द्रुमनि प्रवेश कियो ऐसेई कहाइये॥१॥ 
 
श्रीप्रियादासजी भक्तमालकी भक्तिरसबोधिनी टीकाका मंगलाचरण एवं इस टीकाके लिखे जानेका हेतु बताते हुए कहते हैं कि एक बार मैं महाप्रभु श्रीकृष्णचैतन्य एवं गुरुदेव श्रीमनोहरदासजीके श्रीचरणकमलका हृदयमें ध्यान और मुखसे नाम-संकीर्तन कर रहा था, उसी समय श्रीनाभाजीने मुझे आज्ञा दी, जिसे मैंने शिरोधार्य कर लिया।
 
वह आज्ञा यह थी कि श्रीभक्तमालकी विस्तारपूर्वक टीका करके सुनाइये। टीका कवित्त छन्दोंमें कीजिये, जो कि अत्यन्त प्रिय लगे और सम्पूर्ण संसारमें प्रसिद्ध हो। इस प्रकार भक्तोंका चरित्र कहकर अपनी वाणीको विश्राम दीजिये अर्थात् भक्तोंका चरित्र कहने वाणीको लगा दीजिये।
 
ऐसा कहकर श्रीनाभाजीने वाणीको विश्राम दिया, तब मैंने भावनामें ही निवेदन किया कि मैं तो अपनी बुद्धिको जानता हूँ कि वह टीका करनेमें सर्वथा असमर्थ है, परंतु मैंने श्रीमद्भागवतमें सुना है कि श्रीशुकदेवजी वृक्षोंमें प्रवेश करके स्वयं बोले थे, वैसे ही आप भी मेरी जड़मतिमें प्रवेश करके टीकाकी रचना करा लेंगे॥१॥

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