F भक्तिरसबोधिनी नामस्वरूप-वर्णन - bhagwat kathanak
भक्तिरसबोधिनी नामस्वरूप-वर्णन

bhagwat katha sikhe

भक्तिरसबोधिनी नामस्वरूप-वर्णन

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भक्तिरसबोधिनी नामस्वरूप-वर्णन

रची कविताई सुखदाई लागै निपट सुहाई औ सचाई पुनरुक्ति लै मिटाई है।
अक्षर मधुरताई अनुप्रास जमकाई अति छवि छाई मोद झरी सी लगाई है।
काव्य की बड़ाई निज मुख न भलाई होति नाभाजू कहाई, याते प्रौढिकै सुनाई है।
हृदै सरसाई जो पै सुनिये सदाई, यह 'भक्तिरसबोधिनी' सुनाम टीका गाई है॥२॥
 
इस कवित्तमें श्रीप्रियादासजी अपने काव्यकी विशेषताएँ एवं टीकाका नाम बताते हुए कहते हैं कि मैंने टीका-काव्यकी ऐसी रचना की है, जो पाठकों और श्रोताओंको सुख देनेवाली है और अत्यन्त सुहावनी लगती है। इसमें सचाई है अर्थात् सत्य-सत्य कहा गया है। पुनरुक्ति दोषको मिटा दिया गया है।
अक्षरोंकी मधुरता, अनुप्रास और यमक आदि अलंकारोंसे अत्यन्त सुशोभित होकर इस टीका-काव्यने आनन्दकी झरी-सी लगा दी है। अपने काव्यकी अपने मुखसे प्रशंसा करना अच्छा नहीं होता, परंतु इसे तो श्रीनाभाजीने कहवाया है, इसीसे इसकी प्रशंसा नि:शंक होकर दृढ़तापूर्वक सुनायी है।
यदि नीरस हृदयवाला व्यक्ति भी सदा इसका श्रवण करे तो उसके हृदयमें सरसता होगी और सरस हृदयवालेके लिये बारम्बार सुननेपर भी यह टीका उत्तरोत्तर सरस प्रतीत होगी। ऐसी यह ‘भक्तिरसबोधिनी' सुन्दर नामवाली टीका गायी है, जो भक्तिके सभी रसोंका बोध करानेवाली है॥ २ ॥

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