Shiv Puran Katha online शिव पुराण कथा -18

 Shiv Puran Katha online शिव पुराण कथा

Shiv Puran Katha online शिव पुराण कथा

महर्षियों भगवान श्री हरि के अंतर्ध्यान हो जाने पर मुनिश्रेष्ठ नारद जी शिवलिंगो का भक्ति पूर्वक दर्शन करते हुए पृथ्वी पर बिचरने लगे। भक्ति मुक्ति देने वाले अनेकों शिवलिंग के दर्शन किए।
वहां पर जब रूद्र गणों ने नारदजी को देखा तो वे दोनों गण अपने शाप मुक्ति के लिए उनके पास आकर चरणों में गिर पड़े और बोले मुनि नाथ आप हम पर प्रसन्न होकर हमारा उद्धार करें।

नारद जी बोले- रूद्रगणों उस समय शिव की इच्छा से मेरी बुद्धि भ्रष्ट हो चुकी थी इसलिए मैंने मोहवश होकर आप लोगों को शाप दे डाला । Shiv Puran Katha online शिव पुराण कथा

किंतु मेरा वचन कभी मिथ्या नहीं हो सकता, परंतु अब मैं तुम्हें उस शाप से मुक्त होने का कुछ उपाय बताता हूं उसे सुनो । तुम दोनों मुनि के तेज द्वारा एक राक्षसी के गर्भ से जन्म लोगे । परंतु वहां तुम्हारा प्रताप बल एवं वैभव दिनों दिन बढ़ता जाएगा और तुम दोनों शिव के परम भक्त होवोगे। तब भगवान शिव अपने दूसरे रूप से तुम्हारा उद्धार करेंगे ।

सूतजी कहते हैं- इस प्रकार नारद जी के कथन को सुनकर वे दोनों रूद्रगण प्रसन्न होते चले गए, तब नारदजी भी शिव तीर्थों का भ्रमण करते हुए ही शीघ्र ब्रह्मलोक आ पहुंचे और वहां ब्रह्मा जी को नमस्कार करके उनकी स्तुति की। Shiv Puran Katha online शिव पुराण कथा

इसके बाद हांथ जोड़कर बोले पितामह आप तो परम ब्रह्म का स्वरूप भली-भांति जानते हो आपकी कृपा द्वारा ही मैंने श्री विष्णु भगवान के स्वरूप को समझा था परंतु शिवतत्व को मैं नहीं सुन सका अब मैं शिव पूजन एवं उनके अनेक सुंदर चित्रों को सुनना चाहता हूं।

वे सृष्टि के आदि में किस रूप में रहते हैं तथा सृष्टि के मध्य में उनकी लीला कैसी होती है और अंत में अर्थात प्रलय काल में वे सदाशिव महेश्वर कहां निवास करते हैं ? वे सदाशिव किस प्रकार प्रसन्न होते हैं और वे प्रसन्न होने पर क्या प्रदान करते हैं Shiv Puran Katha online शिव पुराण कथा

ब्रह्माजी बोले- हे ब्रह्मन जिसके सुनने से संपूर्ण लोकों के समस्त पापों का क्षय हो जाता है उस अनामय शिव तत्व का मैं आपसे वर्णन करता हूं।
शिवतत्वं मया नैव विष्णुनापि यथार्थतः।
ज्ञातं च परमं रूपंमद्भुतं च परेण न।। रु•सृ•6-3
शिव तत्व का स्वरूप बड़ा ही उत्कृष्ट और अद्भुत है। जिसे यथार्थ रूप से ना तो मैं जान पाया हूं , ना विष्णु ही जान पाये और अन्य कोई दूसरा भी नहीं जान पाया ।

जिस समय प्रलय हुआ उस समय समस्त चराचर जगत नष्ट हो गया, सर्वत्र केवल अंधकार ही अंधकार था । ना सूर्य ही दिखाई देते थे और अन्याय ग्रहों तथा नक्षत्रों का भी पता नहीं था।
अचन्द्र मनहोरात्र मनग्न्य निलभूजलम्।
ना चंद्र था, ना दिन होता था, ना रात होती थी, अग्नि, पृथ्वी, वायु और जल की भी सत्ता नहीं थी। उस समय प्रधान तत्व ( अव्याकृत प्रकृति ) से रहित सुना आकाश मात्र शेष था।

दूसरे किसी तेज की उपलब्धि नहीं होती थी, अदृष्ट आदि का भी अस्तित्व नहीं था, शब्द और स्पर्श भी साथ छोड़ चुके थे। इस प्रकार सब ओर निरंतर सूचीभेद्य घोर अंधकार फैला हुआ था। उस समय ( तत्सत ब्रह्म ) इस श्रुति में जो सत् सुना जाता है एकमात्र वहीं शेष था ।
अमनोगोचरं वाचां विषयं न कदाचन।
अनामरूप वर्णं च न च स्थूलं न यत्कृशम्।।
अहृस्वदीर्घमलघु गुरुत्वपरिवर्जितम्।
न यत्रोपचयः कश्चित्तथा नोपचयोपि च।। रु•सृ• 6-9,10
वह सत्तत्व मन का विषय नहीं है, वाणी को भी वहां तक कभी पहुंच नहीं होती, वह नाम तथा रूप रंग से भी शून्य है। वह ना स्थूल है, न कृश है, न हृस्व है, ना दीर्घ है। ना लघु है और ना गुरु है उसमें ना कभी वृद्धि होती है ना कभी ह्यास ही होता है। वही परम सत् ब्रह्म जब उसके भीतर एक से अनेक होने की इच्छा संकल्प उदित हुआ।
तब वह निराकार परमात्मा ने अपनी लीला शक्ति से अपने लिए मूर्ति आकार की कल्पना की, वह मूर्ति संपूर्ण ऐश्वर्य गुणों से संपन्न सर्वज्ञानमई सर्वकारिणी, सर्वाद्या, सब कुछ देने वाली और संपूर्ण संस्कृतियों का केंद्र थी। Shiv Puran Katha online शिव पुराण कथा

उस समय एकाकी रहकर स्वेच्छानुसार बिहार करने वाले उन सदाशिव ने अपने विग्रह से स्वयं ही एक स्वरूप भूता शक्ति की सृष्टि की जो उनके अंग से कभी अलग होने वाली नहीं थी । उस पराशक्ति को प्रधान प्रकृति , गुणवती, माया, बुद्धि तत्व की जननी तथा विकार रहित बताया गया है ।
सा शक्तिरम्बिका प्रोक्ता प्रकृतिः सकलेश्वरी।
त्रिदेव जननी नित्या मूल कारण मित्युत।। रु•सृ•6-21
वह शक्ति अंबिका कही गई है , उसी को प्रकृति, सर्वेश्वरी, त्रिदेव जननी, नित्या और मूल कारण भी कहते हैं । सदाशिव द्वारा प्रकट की गई उस शक्ति की आठ भुजाएं हैं। उस शुभलक्षणा देवी के मुख की शोभा विचित्र है। वह अकेले ही अपने मुख मंडल में सदा पूर्णिमा के एक सहस्त्र चंद्रमाओं की कांति धारण करती है। Shiv Puran Katha online शिव पुराण कथा

( काशीपुरी प्राकट्य )

उन काल रूपी ब्रह्म ने एक समय शक्ति के साथ शिवलोक नामक क्षेत्र का निर्माण किया था।
तदेव काशिकेत्येतत्प्रोच्यते क्षेत्र मुत्तमम्।।
उस उत्तम क्षेत्र को काशी ही कहते हैं । वह परम निर्वाण या मोक्ष का स्थान है, जो सब के ऊपर विराजमान है। ए प्रिया प्रियतम रूप शक्ति और शिव जो परम आनंद स्वरूप हैं, उस मनोरम क्षेत्र में निवास करते हैं। वह काशीपुरी परमानंद स्वरूपिणी है।

हे मुने- शिव और शिवा ने प्रलय काल में भी कभी उस क्षेत्र को अपने सानिध्य से मुक्त नहीं किया इसीलिए विद्वान पुरुष उसे अविमुक्त क्षेत्र भी कहते हैं। वह क्षेत्र आनंद का हेतु है इसीलिए पिनाक धारी शिव ने पहले उसका नाम आनंदवन रखा था। उसके बाद वह अविमुक्त के नाम से प्रसिद्ध हुआ ।

हे देवर्षि - एक समय उस आनंद वन में भ्रमण करते हुए शिवा और शिव के मन में यह इच्छा हुई कि किसी दूसरे पुरुष की भी सृष्टि करनी चाहिए, जिस पर सृष्टि संचालन का महान भार रखकर हम दोनों केवल काशी में रहकर इच्छानुसार विचरण करें और निर्वाण धारण करें। वही पुरुष हमारे अनुग्रह से सदा सबकी सृष्टि करे, वही पालन और अंत में वही सब का संघार भी करे।
चेतः समुद्र माकुञ्च्य चिन्ता कल्लोललोलितम्।
सत्त्वरत्नं तमोग्राहं रजोविद्रु मवल्लितम्।। रु•सृ• 6-35

यह चित्त एक समुद्र के समान है । इसमें चिंता की उत्ताल तरंगे उठ उठ कर इसे चंचल बनाए रहती हैं । इसमें सतोगुण रूपी रत्न, तमोगुण रूपी ग्राह और रजोगुण रूपी मूंगे भरे हुए हैं।
इस विशाल चित्त समुद्र को संकुचित करके हम दोनों उस पुरुष के प्रसाद से आनंद कानन ( काशी ) में सुख पूर्वक निवास करें। यह काशी वह स्थान है जहां हमारी मनोवृति सब ओर से सिमटकर इसी में लगी हुई है। तथा जिसके बाहर का जगत चिंता से आतुर प्रतीत होता है। Shiv Puran Katha online शिव पुराण कथा

ऐसा निश्चय करके शक्ति सहित सर्वव्यापी परमेश्वर शिव ने अपने वाम भाग के दसवें अंग पर अमृत का सिंचन किया। उसी समय एक पुरुष प्रकट हुआ जो तीनों लोकों में सबसे अधिक सुंदर था । वह शान्त तथा उसमें सतोगुण की अधिकता थी तथा वह गंभीरता का अथाह सागर था । 

उसके श्री अंगों पर सुवर्ण सदृश कांति वाले दो सुंदर रेशमी पीतांबर शोभा दे रहे थे। तदनन्तर उस पुरुष ने परमेश्वर शिव को प्रणाम करके कहा- हे स्वामी मेरे नाम निश्चित कीजिए और काम बताइए ?

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