शिव पुराण कथा हिंदी में PDF
ऐसा विचार कर सन्ध्या चन्द्रभागा नदी के तट पर स्थित
चंद्रभाग पर्वत पर चली गई। तब मैं अपनी पुत्री को श्रेष्ठ पर्वत पर तपस्या के लिए
गई हुई जानकर अपने संयमात्मक पुत्र वशिष्ठ से बोला- हे पुत्र वशिष्ठ तप के लिए गई
हुई पुत्री तपस्विनी सन्ध्या को तुम जाकर भली प्रकार दीक्षा दो।
सन्ध्या चंद्रभाग पर्वत के लाल सरोवर के निकट बैठी हुई थी उसके पास
पहुंचकर वशिष्ठ जी ने आदर पूर्वक पूंछा-
किमर्थ मागता भद्रे निर्जनं त्वं महीधरम्।
कस्य वा तनया किं वा भगवत्यापि चिकीर्षितम्।। रु•स• 5-50
हे भद्रे! इस निर्जन पर्वत पर तुम किसलिए आई हो और यहां क्या करना चाहती हो? पूर्ण चन्द्रमा के सामान तुम्हारा मुख मलिन क्यों हो गया है ?
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यदि वह छिपाने योग्य ना हो तो मैं सुनना चाहता हूं। वशिष्ठ जी को
देखकर सन्ध्या ने प्रणाम किया और कहा कि मैं इस निर्जन पर्वत पर तप करने आई हूं ।
यदि आप योग्य समझें तो मुझे उपदेश करें। तब वशिष्ठ जी ने कहा- अच्छा तो तुम अब परम
आराध्य शिव जी का आराधन कर उन्हीं का भजन करो । इससे तुम्हारे सभी मनोरथों की
पूर्ति होगी।
ॐ नमः शंकरायेति ओमित्यन्तेन सन्ततम्।
ओम नमः शंकराय । ओम अंत में लगाकर मौन होकर तप करो तथा शिवजी का
पूजन करो। शिवजी तुम्हारे सभी मनोरथों को शीघ्र ही पूर्ण करेंगे । वशिष्ठ जी
संध्या को तप की सब क्रियाएं बतलाई और फिर अंतर्ध्यान हो गए।
संध्या के तप से शिव जी प्रसन्न होकर अपना प्रत्यक्ष दर्शन दिया तो
संध्या मुग्ध होकर आश्चर्य से नेत्र बंद कर लिए । शिवजी उसके हृदय में प्रवेश कर
उसे ज्ञान और दिव्य वाणी तथा दिव्य नेत्र दिए तब वह प्रसन्न हो शिवजी की स्तुति
की। भगवान शिव प्रसन्न होकर वरदान मांगने को कहा तो सन्ध्या ने कहा- यदि आप मेरे
तप से प्रसन्न है तो मैं यह वर मांगती हूं ।
उत्पन्न मात्रा देवेश प्राणिनोस्मिन भुवस्थले।
न भवन्तु समेनैव सकामाः संभवन्तु वै।। रु•स• 6-35
इस संसार में प्राणी उत्पन्न होते ही तुरंत कामी ना हो जाए । हे प्रभु मैं
अपने आचरण से तीनों लोकों में इस प्रकार प्रसिद्ध होउँ, जैसे और कोई दूसरी स्त्री ना हो ।
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एक और वर मांगती हूं मेरे द्वारा उत्पन्न की गई कोई भी संतति सकाम
होकर पतित ना हो और हे नाथ जो मेरा पति हो वह मेरा अत्यंत सुहृद बने ( मेरे पति के
अतिरिक्त ) जो पुरुष मुझे सकाम दृष्टि से देखे उसका पौरुष नष्ट हो जाए और वह
नपुंसक हो जाए।
भगवान प्रसन्न होकर वरदान दिया कि अब-
प्रथमं शैशवो भावः कौमाराख्ये द्वितीयकः।
तृतीयो यौवनो भावश्चतुर्थो वार्धकस्तथा।।
तृतीये त्वर्थ संप्राप्ते वयोभागे शरीरिणः।
सकामाः स्युर्द्वितीयान्ते भविष्यति क्वचित् क्वचित्।।
रु•स• 6-42, 43
प्राणियों का प्रथम शैशव (बाल ) भाव, दूसरा
कौमार भाव, तीसरा यौवन भाव तथा चौथा वार्धक्य भाव होगा ।
शरीर धारी तीसरी अवस्था आने पर सकाम होंगे और कोई कोई प्राणी दूसरी के अंत तक सकाम
होंगे।
तेरा पति बड़ा भाग्यशाली और सात कल्प तक जानने वाला होगा। अब मैं
तेरे पूर्व जन्म की बात करता हूं तेरा अग्नि में जलकर शरीर त्यागना निश्चित है।
देखो मेधातिथि बारह वर्ष से एक यज्ञ कर रहे हैं जिसकी अग्नि बड़े जोर से जल रही है
तुम उसी जलती हुई अग्नि में शीघ्र ही प्रवेश कर जाओ।
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इसी पर्वत के नीचे चंद्रभागा नदी है उसके तट पर तपस्वियों का आश्रम
है, जिसमें मेधातिथि के यज्ञ में प्रवेश कर तू उसकी पुत्री
होगी। तुझे जैसा पति चाहिए उसका मन में संकल्प करके तू अपने इस शरीर को अग्नि में
गिरा दे। ऐसा कहकर शंकर जी अंतर्ध्यान हो गए। इसके बाद सन्ध्या मेधातिथि की यज्ञ
में पहुंचकर अपने उपदेष्टा वशिष्ठ जी का स्मरण कर उन्हें ही अपना पति स्वीकार कर
यज्ञ की बढ़ी हुई अग्नि में कूद पड़ी। उसे कूदते किसी ने नहीं देखा अग्नि ने उसे
जलाकर सूर्य मंडल में प्रवेश कर दिया ।
सूर्य ने उसके शरीर के विभाग कर अपने रथ में स्थापित कर लिया और
उसके ऊपर का भाग रात्रि और दिन के बीच होने वाला प्रातः काल संध्या हो गया। और शेष
भाग पितरों की प्रसन्नता के लिए दिन का अवसान वाली संध्या हो गया ।
उसके प्राण तो दयालु शिवजी ने अपने शरीर में स्थापित कर लिया। इधर
जब यज्ञ की समाप्ति के बाद ऋषियों ने तप्त स्वर्ण के समान कांति वाली उस कन्या को
अग्नि में पड़ा देखा, तब मेधातिथि ने प्रसन्नता से कन्या को
गोद में लिया और उसका नाम अरुंधति रखा।
जब वह पांच वर्ष की हुई तो ब्रह्मा विष्णु और महेश ने आकर
ब्रह्मपुत्र वशिष्ठ के साथ उसका विवाह कर दिया, जिनसे
शतपादिक श्रेष्ठ पुत्रों की उत्पत्ति हुई।
सूत जी बोले- हे ऋषियों जब इस प्रकार प्रजापति ब्रह्मा ने कहा,
तब नारदजी आनंद मग्न होते हुए बोले- हे ब्रह्मन अब आप बताइए इसके
आगे क्या हुआ ?
तब ब्रह्मा जी कहते हैं- जब संध्या को देखने मात्र से शिव जी ने मुझ
सृष्टिकर्ता को बहुत फटकारा था तभी से मैं शिव की माया से मोहित हो उनसे ईर्ष्या
करने लगा था और यह सोचने लगा कि यह विकार से मैं शिव को आवद्ध करूं।
तब रति और मदन को देखकर मैं थोड़ा मद मुक्त हो दक्षादि अपने पुत्रों
के पास गया और उनसे बोला दक्ष तुमको ज्ञात है कि स्त्री को देखने मात्र से शिव जी
ने मुझे बहुत धिक्कारा था , जिसके दुख से मैं आज भी दुखी
हूं। अतः जैसे भी हो महादेव भी स्त्री ग्रहण कर ले तभी मुझे शांति आवेगी ।
नारद में ऐसा अपने पुत्रों से कहीं रहा था कि रति सहित कामदेव वहां
आ पहुंचा तब मैंने उसकी भी बहुत प्रशंसा की और कहा तुम जगत के हित के लिए शिवजी को
मोहित करो, तुम्हारे सिवा दूसरा उन्हें मोहित नहीं कर सकता।
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महादेव जी पर अनुराग करने से तुम्हारे श्राप की भी शांति होगी और
जगत का कल्याण भी। क्योंकि जब शिवजी को स्त्री से अनुराग होगा तब वे महादेव जी
तुम्हें तार देंगे।
तब मदन ने कहा कि मैं आपका वचन पालन कर शिवजी को मोहित तो अवश्य कर
दूंगा, किंतु स्त्री का निर्माण तो आप ही करें। तब कन्दर्प
के ऐसा कहने पर प्रजापति दक्ष इस चिंता में पड़ गए कि किसके द्वारा मोहित करें ?
फिर तो चिंता ग्रस्त मेरी और उनकी सांसो से जो सुरभित वायु निकली
उसने पुष्प समूहों से भूषित ताम्ररस से नेत्र, संध्या के
उदित चंद्र खंड सा मुख और सुंदर नासिका थी ऐसे श्रेष्ठ को आभिर्भूत हुआ देखकर मैं
हिरण्यगर्भ मदन से कोमल वचनों में कहा- कि हे मन्मथ तुम सर्वदा काम के सहचर हो सब
देवता तुम्हारी अनुकूलता करेंगे ।
यह रमण का हेतु होने से इसका नाम बसंत है और यह लोगों को रंजित
करेगा। काम तुम अपने इस बसंत आदि सहचरों सहित रति को साथ लेकर शिवजी को मोहित करने
का उपयोग करो।
फिर सपत्नीक काम ने प्रसन्न हो मेरे चरणों में प्रणाम किया और शिव
के स्थान को चला गया। ब्रह्माजी बोले काम ने प्राणियों को मोहित करने वाला अपना
प्रभाव फैलाया, वसंत ने भी उसका साथ दिया, रति के साथ कामदेव ने शिवजी को मोहित करने के लिए अनेक प्रकार के यत्न
किए।