संपूर्ण शिव महापुराण कथा sampoorna shiv mahapuran katha
उन्होंने सतरूपा से प्रियव्रत और उत्तानपाद नामक दो पुत्र
और तीन कन्याएं उत्पन्न की- आहुति, देवहूति और
प्रसूति । मनु ने आकुति का विवाह प्रजापति रुचि के साथ किया। मछली पुत्री देवहुति
कर्दम को ब्याह दी और उत्तानपाद की सबसे छोटी बहन प्रसूति प्रजापति दक्ष को दी,
उनमें प्रसूति की संतानों से समस्त चराचर जगत व्याप्त है ।
रुचि के द्वारा आकूति के गर्भ से यज्ञ और दक्षिणा नामक स्त्री पुरुष
का जोड़ा उत्पन्न हुआ। यज्ञ से दक्षिणा के गर्भ से बारह पुत्र हुए। कर्दम द्वारा
देवहूति के गर्भ से बहुत सी पुत्रियाँ उत्पन्न हुईं।
दक्ष से चौबीस कन्यायें उत्पन्न हुयीं। दक्ष ने उनमें से श्रद्धा
आदि तेरह कन्याओं का विवाह धर्म के साथ कर दिया। धर्म की पत्नियों के नाम-
श्रद्धा, लक्ष्मी, धृति,तुष्टि, पुष्टि, मेधा, क्रिया, बुद्धि, लज्जा,
वसु, शांति, सिद्धि और कीर्ति यह सब तेरह हैं।
इनसे छोटी शेष ग्यारह सुंदर नेत्रों वाली कन्याओं का विवाह- ख्याति का भ्रुगू से, सत्पथा का भव से, संभूति का मरीच से , स्मृति का अंगिरा से, प्रीति का पुलस्त्य से, क्षमा का पुलह से , सन्नति का कृतु से , अनुसूया का अत्रि से, ऊर्जा का वशिष्ट से, स्वाहा का वह्नि से तथा स्वधा
का पितरों के साथ हुआ।
कल्पभेदेन दक्षस्य षष्टिः कन्याः प्रकीर्तिताः।
कल्पभेद से दक्ष की साठ कन्यायें बताई गई हैं जिनमें से-
दश धर्माय कायेन्दोर्द्विषट् त्रिणव दत्तवान्।
भूताङ्गिरः कृशाश्वेभ्यो द्वे द्वे तार्क्ष्याय चापराः।। भा-6-6-2
दक्ष प्रजापति ने उनमें से दस कन्याएं धर्म को, तेरह कश्यप को, सत्ताइस चंद्रमा को, दो भूत को, दो अंगिरा को , दो
क्रशाष्व को और शेष चार तार्क्ष्यनामधारी कश्यप को ब्याह दी और इनके संतानों से
सृष्टि भर गई।
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( यज्ञदत्त के पुत्र गुणानिधि की कथा )
सूत जी बोले- हे मुनीश्वरों इसके बाद नारद जी ने पुनः विनय पूर्वक प्रणाम करके
पूछां ब्रह्मा जी से-
कदा गतोहि कैलासं शंकरो भक्तवत्सल।
क्व वा सखित्वं तस्यासीत् कुबेरेण महात्मना।। रु•सृ• 17-2
भक्तवत्सल भगवान शंकर कैलाश पर्वत पर कब गए और महात्मा कुबेर के साथ उनकी
मैत्री कब हुई ? यह सब मुझे बताइए ?
ब्रह्माजी बोले- हे नारद मैं चंद्रमौली भगवान शंकर के चरित्र का
वर्णन करता हूं, वे जिस प्रकार कैलाश पर्वत पर गए और कुबेर
कि उनकी मैत्री हुई ।
काम्पिल्य नगर में सोमयाज्ञ करने वाले कुल में उत्पन्न यज्ञ विशारद
यज्ञदत्त नामक एक दीक्षित ब्राह्मण था। वह वेद वेदांग का ज्ञाता, प्रबुद्ध , वेदांतादि मे दक्ष, अनेक राजाओं से सम्मानित , परम उदार और यशस्वी था।
वह अग्निहोत्र आदि कर्मों में सदैव संलग्न रहने वाला, वेदाध्ययन परायण , रमणीय अंगों वाला था।
आसीद् गुणनिधिर्नाम दीक्षितस्यास्य वै सुतः।।
उसके एक गुणनिधि नामक पुत्र था जिसकी आयु उस समय आठ वर्ष की थी, उसका यगोपवीत हो चुका था और वह भी बहुत सी विद्यायें जानता था । परंतु
पिता के अनजान में वह द्यूत कर्म में प्रवृत्त हो गया।
उसने अपनी माता के पास से बहुत सा धन लेकर जुआरियों को सौंप दिया और
उनसे मित्रता कर ली। वह ब्राह्मण के लिए आपेक्षित आचार विचार से रहित, संध्या स्नान आदि कर्मों से पराङ्गमुख, वेद शास्त्र
आदि का निंदक, देवताओं और ब्राह्मणों का अपमान करने वाला
हुआ।
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माता द्वारा प्रेरित करने पर भी वह कभी अपने पिता के पास नहीं जाता
था। घर के अन्य कर्मों में व्यस्त वह दीक्षित ब्राह्मण जब जब अपनी दीक्षित पत्नी
से पूछता कि हे कल्याणी घर में मुझे पुत्र गुणानिधि नहीं दिखाई देता वह क्या कर
रहा है?
तब तब वह यही कहती कि वह इस समय स्नान करके तथा देवताओं की पूजा
करके घर से बाहर गया है या अभी तक पढ़ रहा था अब दो-तीन मित्रों के साथ बाहर को
गया है। इस प्रकार उस गुण निधि की एक पुत्रा माता सदैव दीक्षित को धोखा देती रही।
वह दीक्षित ब्राह्मण पुत्र के कर्म और आचरण को कुछ भी नहीं जान पाता
था। सोलहवें वर्ष में उसने उसके केशांत कर्म आदि सब संस्कार भी कर दिए । इसके
पश्चात उस दीक्षित यज्ञदत्त ने गृह सूत्र में कहे गए विधान के अनुसार अपने पुत्र
का पाणिग्रहण संस्कार भी कर दिया ।
माता नित्य प्रति पुत्र को यह समझाती रहती थी कि तुम्हारे पिता वैसे
तो बड़े महात्मा है किंतु उनका क्रोध भी बड़ा विशाल है । इसलिए तुम अपनी बुरी
आदतों को छोड़ दो अन्यथा किसी दिन तुम्हारे पिता इस चरित्र को जानेंगे तो तुमको और
मुझको दोनों को मारेंगे ।
परंतु माता के इस प्रकार समझाने पर भी उस पर कोई असर नहीं पड़ता था
। एक दिन उसने पिता की अंगूठी चुराकर किसी जुआरी के हाथ में दे दी। दैवयोग से पिता
ने उस अंगूठी को ज्वारी के हाथ में देखी तो उससे पूछा?
उसने कहा कि मैंने कोई तुम्हारी चोरी तो नहीं की है किंतु तुम्हारे
पुत्र ने लाकर अवश्य दिया है ,मुझे अंगूठी ही नहीं बल्कि
उसने और जुआरियों को बहुत सा धन ला कर दिया है। परंतु आश्चर्य है कि तुम जैसे
पंडित भी अपने पुत्र के लक्षणों को नहीं जान सके।
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यह सुनकर लज्जा के कारण दीक्षित का सर झुक गया । वह सिर झुकाये
वस्त्र से अपना मुंह ढके हुए अपने घर गया और घर में जाकर अपनी पत्नी से बोला- अरे
धूर्त पत्नी भला यह तो बता कि तेरा लाडला पुत्र कहां गया है ? खैर वह कहीं भी गया हो किंतु वह मेरी अंगूठी कहां है जिसे उबटना करते समय
तूने मेरे हाथ से ले ली थी।
ब्राह्मण क्रोध में बोले तू बड़ी सत्यवादिनी है इसीलिए तो जब जब
पूछंता था पुत्र कहां है ? तब तब तू मुझे अपनी बातों में
बहला दिया करती थी।
पत्नी से ऐसा बोलते हुए घर के अन्य चीजों को ढूंढने लगा जब एक भी
चीज ना मिली क्योंकि पुत्र ने उन सब को जुए में दे डाला था। तब सारा दोष अपनी पत्नी
का जानकार उस दीक्षित ने हाथ में जल लेकर पुत्र और पत्नी दोनों को तिलांजलि दे दी
-
अनपत्योस्मि तेनाहं दुष्टेन कुलदूषिणा।
उत्तिष्ठानय पाथस्त्वं तस्मैदद्यां तिलांजलिम्।। रु•सृ• 17-59
तदनन्तर उस दीक्षित ब्राह्मण ने स्नान करके अपनी नित्य क्रिया संपन्न करके उसी
दिन अपना दूसरा विवाह कर लिया।
यह घटना से वह दीक्षित पुत्र गुणनिधि घर को छोड़कर अन्यत्र चला गया
वहां अपने भविष्य की चिंता करने लगा। भूख प्यास से पीड़ित हो संध्या समय एक शिव
मंदिर के पास जाकर बैठ गया, उस मंदिर में एक शिव भक्त,
परिवार सहित आकर पूजन किया और घर से लाए पकवान भगवान शिव को निवेदन
किया और इधर भूख से पीड़ित गुण निधि मंदिर की आड़ से छुपकर देखने लगा।
जब वह शिवभक्त पूजन से निवृत हो विश्राम करने लगे तो वह जाकर मंदिर
में घुसकर जितना भी भोग प्रसाद चढ़ा था सब लेकर भागा और उसे भागते देख कर वह सभी
लोग पकड़ने को दौड़े चिल्लाने के कारण नगर के लोगों ने उसे पकड़कर पिटाई की और वह
क्षण भर में ही मर गया ।