shiv puran hindi mein
वह शिव जी के वचन सुन प्रेम मगन हो गई, शिव जी ने फिर कहा- वर मागो-वर मागो तब सती ने अपनी लज्जा त्याग कर कहा-
हे वरद आप वही वर दीजिए जो आपको अच्छा लगे।
सती का वचन पूरा भी ना हुआ था कि भक्तवत्सल शिव ने तुम मेरी
अर्धांगिनी बनो कहकर उन्हें यह वर दे दिया । मनोवांछित वर पाकर सती मौन हो गई । वर
देकर शिव अंतर्ध्यान हो गए ।
उमा भी अपने घर आकर शिव प्राप्ति का समाचार जब कहा माता-पिता
प्रसन्न हो गए। इधर भगवान शिव से सभी देवता शुभ लग्न में विवाह करने की प्रार्थना
की तो चैत्र शुक्ल त्रयोदशी, रविवार के दिन फाल्गुनी नक्षत्र
में शिव जी ने यह यात्रा की ।
ब्रह्मा जी बोले- नारद मैं ब्रह्मा ,विष्णु और
सभी देवता मुनि उनके साथ हुए। नन्दी में बैठे शिवजी शीघ्र ही दक्ष के घर पहुंचे।
दक्ष ने बड़ी विधि से उनकी पूजा की। शुभ लग्न में शिवजी के लिए सती का कन्यादान
किया ।
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समस्त देवता और मुनि स्तुति से शिवजी को प्रसन्न करने लगे। नृत्य
गान का बडा उत्सव हुआ। ब्रह्माजी बोले- कन्यादान के बाद दक्ष ने शिव जी के लिए
बहुत सारा भेंट दिया। ब्राह्मणों को बहुत सा धन दिया । तब लक्ष्मी सहित विष्णु जी
उठकर शिव जी के पास आ हाथ जोड़कर कहने लगे- महादेव जी आप संपूर्ण ब्रह्मांड के
पिता और सती सबकी माता हैं, अब आप इस रूप शक्ति से देवताओं,
मनुष्यों और सज्जनों का कल्याण कीजिए।
तब शिवजी ने हंसकर कहा- एवमस्तु। यह सुनकर विष्णु जी अपने स्थान को
चले गए। इसके बाद सती और शिव जी मेरी आज्ञा से यथा विधि अग्नि की प्रदक्षिणा की और
गीत नृत्य आदि महोत्सव हुआ ।
शिव की माया ने देवताओं मनुष्यों और राक्षसों सहित सारे विश्व को
मोहित कर दिया। मैं भी मोहित हो गया विवाह कराते समय दक्ष की पुत्री पतिव्रता सती
को देखकर मैं कामवश हो गया और मुख देखने की इच्छा करने लगा।
उस समय मैं अग्नि कुण्ड में बहुत सी गीली समिधा डालकर थोड़ी सी घी
की आहूति दिया, जिससे ईंधन से धुआं उत्पन्न होने लगा और
अंधेरा हो गया । फिर सती के मुख से वस्त्र हटाकर मैंने उनका मुख देख लिया। मेरी
इंद्रियों में विकार हो गया।
मेरे तेज की चार बूंद पृथ्वी पर गिर पड़ी। शिव जी अपने दिव्य
नेत्रों से मेरा पतन देख लिया, तब उन्होंने क्रुद्ध होकर
कहा- पापात्मा तुमने यह क्या निन्दित कार्य किया ? विवाह के
समय मेरी स्त्री का मुख अनुराग से देखा। ऐसा कह शिव जी ने मुझे मारने को त्रिशूल
उठा लिया, उसी क्षण विष्णु जी ने शिव की बड़ी स्तुति की।
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शंकर जी ने कहा विष्णु तुम मुझे प्राणों से भी प्रिय हो। विष्णु जी
ने कहा प्रभु हम आपसे भिन्न नहीं है और ना आप भी हमसे भिन्न हैं। सर्वज्ञ आप सब
कुछ जानते हैं। विष्णु जी के इस प्रकार बहुत कहने पर शिवजी ने मुझे नहीं मारा और
वह महादेव फिर से प्रसन्न हो गए।
तब मैं शिवजी की स्तुति कर पाप शुद्धि का उपाय पूछा ? तब शिवजी ने कहा तुम मेरी आराधना कर तप करो । पृथ्वी में सर्वत्र रूद्रशिर
नाम से आप की प्रसिद्धि होगी और वह आपका तेज जो पृथ्वी पर गिरा वह आकाश में
प्रलयकृत मेघ बनेंगे तो संवर्त, आवर्त, पुष्कर तथा द्रोण नामक ये चार प्रकार के मेघ हुए।
फिर शंकर जी दक्ष से सती सहित जाने की विदा मांगी, दक्ष ने बड़े उत्साह से अपनी पुत्री सती और शंकर को विदा किया।
( शिवजी सती विहार )
ब्रह्मा जी बोले- कैलाश में पहुंचकर सती जी ने सब गणों को आश्रम से
दूर जाकर रहने की आज्ञा दी। शंकर जी ने भी कहा कि अच्छा जाओ पर जब मैं स्मरण करूं
तब शीघ्र ही आ जाना। नंदी आदिक गण अपने स्थान को चले गए, तब
एकांत पाकर शिवजी सती के साथ रमण लीला करने लगे।
( शिव सती का हिमालय गमन )
ब्रह्माजी बोले- एक दिन जब वर्षा हो रही थी तब कैलाश शिखर पर बैठे
महादेव जी से सती ने कहा- प्राण बल्लभ वर्षा काल आ गया है-
एतस्मिन्विषये काले नीडं काकाश्चकोरकाः।
कुर्वन्ति त्वां विना गेहान् कथं शांतिमवाप्स्यसि।। रु•स• 22-18
हे सदाशिव इस विषम परिस्थिति में केवल आपको छोड़कर कौवा और चकोर पक्षी भी अपना
घर ( घोंसला ) बना रहे हैं । अब आप ही बताइए घर के बिना आप किस प्रकार शांति
प्राप्त करेंगे ।
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हे वृषभध्वज आप कैलाश पर्वत पर, हिमालय पर
अथवा महाकोषी पर या पृथ्वी पर कहीं अपने योग्य निवास स्थान बनाइए । सती की यह
प्रार्थना सुनकर कैलाश वासी, दीनों के दुखहर्ता भगवान शंकर
ने कहा- प्रिये जहां मैं तुम्हारे साथ रहूंगा वहां मेघ कभी नहीं आएंगे। वर्षा काल
में भी मेघ हिमालय के नितंब ही भ्रमण करते रहेंगे और भगवान शंभू सती संग हिमालय को
चले गए।
बोलिए शंकर भगवान की जय
नारग जी ने कहा- महाब्रह्मन अब आप मुझे सती के अन्य चरित्र सुनाइए ?
ब्रह्माजी बोले- नारद जब एक समय लीलाधारी शंकर सती के साथ नंदी पर
बैठे हुए त्रिलोकी भ्रमण कर रहे थे तो दंडक वन में पहुंचने पर उन्होंने सती को
वहां कि वह भूमि दिखलाई जहां से रावण सीता को हर ले गया था और भगवान राम सीता के
वियोग में लताओं और वृक्षों से भी उनका परिचय पूंछते हुए सीता का पता लगा रहे थे।
हे खग हे मृग मधुकर श्रेणी । तुम देखी सीता मृगनैनी।।
तब सती को यह बतलाते हुए देवाधि शंकर जब वहां से आगे बढ़े तो उन्हें भाई
लक्ष्मण के साथ सीता को खोजते हुए भगवान श्रीराम दिखाई पड़े। शिव जी ने दूसरे
मार्ग से आगे जाकर उन्हें प्रणाम किया और रामचंद्र को अपना दर्शन दिया।
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यह देख सती जी शिव की माया से मोहित हो गई और उन्होंने मुस्कुराते
हुए शिव जी से कहा कि परमेश्वर आप तो सब देवताओं से प्रणम्य हैं और सर्वोच्च हैं। फिर
विरही मनुष्यों की तरह वन में विचरते हुए इन दोनों मनुष्यों को आपने प्रणाम क्यों
किया ? वे दोनों कौन थे ?
हे स्वामिन! इस शंका का निवारण कीजिए! सती को इस प्रकार माया से
मोहित हुआ देख शिव जी मुस्कुराते हुए बोले- हे देवी सुनो मैंने जो इन्हें सादर
प्रणाम किया है वह सूर्य वंश में उत्पन्न हुए यह दोनो भाई दशरथ के पुत्र हैं । राम
और लक्ष्मण इनका नाम है।
गौरवर्णोलघुर्बन्धुः शेषेशो लक्ष्मणाभिधः।
ज्येष्ठो रामानिधो विष्णुः पूर्णांशो निरुपद्रवः।। रु•स• 24-35
गोरे रंग के छोटे भाई लक्ष्मण हैं। श्री राम बड़े ही शांत और विष्णु
के साक्षात् अवतार हैं । यह पृथ्वी पर साधु जनों की रक्षा और हमारे कल्याण के लिए
अवतरित हुए हैं । इतना कहकर भगवान शंकर मौन हो गए परंतु सती जी के मन में विश्वास
नहीं हुआ।
तब सती के अविश्वास चित्त को देखकर भगवान शिव ने कहा हे देवी यदि
तुमको मेरे वचनों में विश्वास नहीं है तो जाकर बुद्धि से श्री राम की परीक्षा करो-
जो तुम्हरे मन अति संदेहू। तौ किन जाइ परीक्षा लेहू।।
तब लगि बैठ अहउँ बटछाहीं। जब लगि तुम्ह ऐहहुं मोहि पाहीं।।
जैसे जाइ मोह भ्रम भारी। करेहु सो जतन विवेक विचारी।।
हे प्रिय जैसे तुम्हारा यह मोह दूर हो वैसा उपाय करो, मैं तब तक वट की छाया में बैठकर तुम्हारी बाट जोहता रहूंगा। फिर तो आज्ञा
पाते ही सती जी राम की परीक्षा करने चली और वहां जाकर विचारने लगी किस प्रकार
परीक्षा लूं । तब उन्होंने सोचा कि सीता का रूप धारण कर राम के समीप जाऊं यदि श्री
राम साक्षात विष्णु के अवतार होंगे तो मुझे पहचाने लेंगे अन्यथा नहीं ।
( श्री राम देशिक प्रशिक्षण केंद्र )
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