shiv puran hindi mein
वह सीता का
रूप धारण कर परीक्षा के लिए राम के पास गईं, तब
सती को सीता के रूप में देख शिव का नाम जपते हुए श्री रामचंद्र जी ने यह रहस्य
जानते हुए उन्हें प्रणाम करके मुस्कुराते हुए कहा-
जोरि पानि प्रभु कीन्ह प्रणामू। पिता समेत लीन
निज नामू।।
कहेउ बहोरी कहां वृषकेतु। विपिन अकेलि फिरहुं केहि हेतू।।
हे सती आपने रूप त्याग कर यह रूप क्यों बनाया ? इस समय शिवजी कहां है जो तुम पति के बिना अकेली इस
वन में फिर रही हो। राम के वचनों का स्मरण कर सती चकित हो गई और उन्हें शिव के
वचनों का स्मरण कर बड़ी लज्जा आयी।
अब वे राम जी को साक्षात विष्णु समझ उनसे बोली- कि राम जी मैंने आप
की प्रभुता देख ली परंतु आप यह बताइए कि शिव जी ने आपको प्रणाम क्यों किया ?
सती के वचन सुन श्री राम जी के नेत्र हर्षित हो गए । श्री राम बोले
देवी एक समय बहुत पहले शिव जी ने अपने लोक में विश्वकर्मा को बुलाकर उसमें एक
मनोहर गौशाला बनवाई और उसमें एक मनोहर विस्तृत भवन और उसमें एक दिव्य सिंहासन तथा
सबसे अद्भुत एक छत्र भी बनवाया।
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फिर सब देवताओं, पुत्रों सहित ब्रह्मा,
मुनियों, देवियों और अप्सराओं को बुलाया,
अनेक वस्तुओं का संग्रह करवाया। नागों की सोलह कन्याओं ने मंगलाचार
किया और संगीतज्ञो ने वीणा मृदंग आदि बाजे बजा कर संगीत गान कराया।
इस प्रकार बड़ा उत्सव समारोह किया, राज्याभिषेक
की सारी सामग्रियां भी अपने गणों से मंगवाई फिर बड़े घोर शब्द वाला शंख बजाकर
प्रसन्नता से वैकुंठ वासी विष्णु को बुलवाया और उनका राज्याभिषेक किया और फिर
स्वयं शंकर जी ने विष्णु जी की बड़ी स्तुति की।
ब्रह्मा जी से बोले-
अतः प्रभृति लोकेश मन्निदेशादयं हरिः।
मम वंद्यः स्वयं विष्णुर्जातः सर्वः शृणोति हि।। रु•स• 25-15
लोकेश आज से मेरी आज्ञा के अनुसार यह विष्णु हरि स्वयं मेरे वंदनीय
हो गए ,इस बात को सभी सुनलें। हे तात आप संपूर्ण देवता आदि
के साथ इन श्री हरि को प्रणाम कीजिए और यह वेद मेरी आज्ञा से मेरी ही तरह श्रीहरि
का वर्णन करें ।
शिव जी ने विष्णु जी को अनेक वरदान दिए सभी लोकों का कर्ता भर्ता और
सहंर्ता बनाया। अपनी सारी माया दी कहा-हे विष्णु पृथ्वी पर आप के जितने भी अवतार
होंगे मेरे भक्त आदर पूर्वक उनका दर्शन करेंगे ।
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इस प्रकार विष्णु को अखंड ऐश्वर्य देकर अपने गणों सहित शंकर जी
कैलाश को चले गए। उसी समय भगवान विष्णु ने गोप वेष धारण किया । गोपों,गोपियों और गौओं के स्वामी बने । इस समय भगवान शिव की आज्ञा से उन्होंने
चार रूप लेकर अवतार धारण किए हैं। पहले में राम , तीन में
भरत लक्ष्मण और शत्रुघ्न हैं।
अथ पित्राज्ञया देवि ससीतालक्ष्मणः सति।
आगतोहं वने चाद्य दुःखितो दैवतोभवम्।। रु•स• 25-34
हे देवी सती मैं पिता की आज्ञा से सीता और लक्ष्मण के साथ वन में
आया हूं और भाग्यवस इस समय मैं दुखी हूं । किसी राक्षस ने मेरी पत्नी सीता को चुरा
लिया है, भाई के साथ मैं वियोगी बना उन्हें इन वन में ढूंढ
रहा हूं ।
माता आपका दर्शन पाकर मेरा कल्याण हुआ, यदि
आपकी कृपा रही तो सर्वदा मंगल ही होगा। इस प्रकार बहुत कुछ कहकर सती जी को प्रणाम
कर रामचंद्र जी वन में बिचरने लगे। सती जी ने उन्हें शिवभक्त जान उनकी बड़ी
प्रशंसा की । फिर अपने किए पर पश्चाताप करते हुए शिव जी के पास लौट आई। सती जी को
चिंता थी कि अब शिव जी के समीप जाकर उन्हें क्या उत्तर दूंगी।
ऐसा बारंबार विचार कर सती पछताने लगी। फिर शिव जी के पास जाकर
उन्हें हृदय से प्रणाम किया । शोक से व्याकुल उनके मुख की शोभा क्षीण हो गई । तब
उन्हें दुखी देख शिवजी ने पूंछा देवी सब कुशल तो है ना ? कहिए
आपने किस प्रकार परीक्षा ली ?
सती ने सिर झुका लिया और बोली कुछ नहीं स्वामी
आपकी तरह ही मैंने प्रणाम किया।
कछु ना
परीक्षा लीन गोसाई। कीन्ह प्रनामु तुम्हारिहि नाई।।
महायोगी ने
ध्यान से सती का चरित्र की ज्ञात कर लिया ,उन्होंने
सोचा यदि मैं सती को पूर्ववत स्नेह करूं तो मेरी शुद्ध प्रतिज्ञा भंग हो जाएगी।
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सती कीन्ह सीता कर भेषा। शिव उर भयउ विषाद विशेषा।।
जौ अब करउँ सती सन प्रीति। मिटई भगति पथु होइ अनीति ।।
वेद धर्म के पालक शिव जी ने सती को मन से त्याग दिया, फिर सती से कुछ ना कहकर कैलाश की ओर बढ़े। मार्ग में सब को- विशेषकर सती
जी को सुनने के लिए आकाशवाणी हुई- कि महायोगिन आप धन्य हैं। आप के समान तीनों
लोकों में ऐसा प्रण पालक कोई नहीं है।
यह आकाशवाणी सुनते ही सती कांति हीन हो गई फिर उन्होंने शिवजी से
पूछा कि नाथ आपने कौन सा प्रण किया है ? उसे कहिए, परंतु सती जी के पूछने पर भी शिवजी ने ब्रह्मा विष्णु के आगे की हुई
प्रतिज्ञा को ना बतलाया। फिर तो सती ने अपने प्राण प्रिय शंकर का मन में ध्यान
करके अपने त्याग की सारी बातें जान ली।
शिव जी द्वारा अपना त्याग समझ उनके मन में बड़ा दुख हुआ, वह दीर्घ निस्वास लेने लगी। तब सब समझ शिवजी सती का मन बहलाने के लिए
अनेकों कथाएं कहने लगे।
सतिहि ससोच जानि वृषकेतु। कहीं कथा सुंदर सुख हेतु ।।
बरनत पंथ विविध इतिहासा। विश्वनाथ पहुंचे कैलाशा ।।
फिर कैलाश में पहुंच समाधि लगा अपने रूप का ध्यान करने लगे। सती भी
उनके समीप ही खिन्न मन से बैठी रही। सती और शंकर के इस चरित्र को किसी ने नहीं
जाना। बहुत समय व्यतीत हो गया जब शंकर जी ने समाधि खोली तो समीप जाकर सती ने शंकर
जी को प्रणाम किया।
आसनं दत्तवान शंभुः स्वसम्मुखं उदारधीः।
उदार बुद्धि शंकर जी ने उन्हें अपने सन्मुख आसन दिया, बहुत सी कथाएं कहकर सती को शोक मुक्त किया परंतु शंकर जी ने सत्यता ना
छोड़ी।
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( दक्ष का शिव से विरोध )
ब्रह्माजी बोले- पूर्व काल में प्रयाग में एकत्र होकर मुनियों
ने एक महान यज्ञ किया, जिसमें मैं भी सम्मिलित हुआ, अपने गणों को साथ लिए शिवजी भी उसमें आए। सबने भक्ति पूर्वक उन्हें प्रणाम
कर उनकी स्तुति की ।
इसी समय प्रजापतियों के स्वामी दक्ष भी वहां आ पहुंचे और उन्होंने
केवल मुझे ही प्रणाम किया और मेरी आज्ञा से बैठ गए , फिर सब
ने दक्ष की बड़ी पूजा की परंतु महेश्वर अपने आसन पर बैठे रहे और उन्होंने दक्ष को
प्रणाम नहीं किया।
इससे दक्ष को बड़ा क्रोध आया , दक्ष ने सभा के
मध्य सबको सुनाते हुए शिव जी को बहुत कुवाक्य कहा कि- वह पाखंडी, दुर्जन, पापशील, ब्राह्मण
निंदक, सर्वदा स्त्री में आसक्त है। संबंध से मेरा पुत्र
होते हुए भी इसने मुझको प्रणाम नहीं किया।