shiv puran hindi mein
अतः शमशान में रहने वाला निर्लज्ज मुझे इस समय प्रणाम क्यों
नहीं करता- रुद्रो ह्ययं यज्ञबहिष्कृतो मे। मै इस
रूद्र को यज्ञ से बहिष्कृत करता हूं , यह देवताओं के
साथ यज्ञ में भाग ना पाए। ब्रह्माजी बोले- हे नारद दक्ष की कही हुई यह बात सुनकर
भृगु आदि बहुत से महर्षि रुद्रदेव को दुष्ट मानकर देवताओं के साथ उनकी निंदा करने
लगे।
दक्ष की बात सुनकर गणेश्वर नंदी को बडा़ रोष हुआ । उनके नेत्र चंचल
हो उठे और वे दक्ष को श्राप देने के विचार से इस प्रकार कहने लगे-
रे रे शठ महामूढ दक्ष दुष्टमते त्वया।
यज्ञबाहो हि मे स्वामी महेशोहिकृतः कथम्।। रु•स• 26-21
हे शठ महामूढ, हे दुष्ट बुद्धि दक्ष तुमने
मेरे स्वामी महेश्वर को यज्ञ से बहिष्कृत क्यों कर दिया ? जिनके
स्मरण मात्र से यज्ञ सफल हो जाते हैं, उन्हीं महादेव जी को
तुमने श्राप कैसे दे दिया ?
नंदी के इस प्रकार फटकारने पर प्रजापति दक्ष रुष्ट हो गए और नंदी को
श्राप दे दिया। दक्ष बोला- हे रुद्रगणों तुम लोग वेद से बहिस्कृत हो जाओ, वैदिक मार्ग से भ्रष्ट हो जाओ, शिष्टाचार से दूर
रहो। दक्ष के इस प्रकार श्राप देने पर शिलाद पुत्र नंदी क्रोधित हो बोले- दक्ष तू
भगवान से द्वेष करके अच्छा नहीं किया । मैं तुझे श्राप देता हूं कि तू तत्वज्ञान
से रहित हो जा।
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इस प्रकार नंदीश्वर ने भी ब्राह्मण आचार्य को श्राप दिया- भगवान
शंकर नंदी को समझाते हुए बोले कि- महाप्राज्ञ तुम्हे क्रोध नहीं करना चाहिए ।
तुमने भ्रम से यह समझ लिया कि मुझे श्राप दिया गया है ।
और तुमने व्यर्थ में ही ब्राह्मण कुल को श्राप दे डाला। भगवान शंकर
ने समझाया अरे नंदीश्वर तुम तो सनकादिकों को भी तत्व ज्ञान का उपदेश देने वाले हो,
अतः शांत हो जाओ , तब नंदीश्वर शांत हो गए।
फिर भगवान शिव अपने गणों सहित वहां से प्रशन्नता पूर्वक अपने स्थान
को चले गए । इधर इस घटना से दक्ष सदा रोष में भरे रहते थे और शिव के प्रति श्रद्धा
त्यागकर शिव निंदा करने लगे ।
एकदा तु मुने तेन यज्ञः प्रारंभितो महान।
तत्राहूतास्तदा सर्वे दीक्षितेन सुरर्षयः।। रु•स• 27-1
ब्रह्माजी बोले एक समय दक्ष ने बड़े महान यज्ञ का प्रारंभ किया और दीक्षा
प्राप्त उसने उस यज्ञ में सभी देवताओं तथा ऋषि यों को बुलाया। उस यज्ञ में भृगु
आदि तपस्वियों को रित्विज बनाया गया। गंधर्वों, विद्याधरों,सिद्धगणों, आदित्य समूहों और सभी नागों को दक्ष ने
अपने इस महान यज्ञ में वरण किया था।
कश्यप, अगस्त,अत्रि,
वामदेव, भृगु, दधीचि,
भगवान व्यास, भरद्वाज, गौतम,
पराशर, गर्ग, भार्गव,
ककुपसित, कंक और वैशम्पायन ये सभी ऋषि मुनि
मेरे पुत्र के यज्ञ में आए । इसी प्रकार सभी अन्यान्य देवता भी दक्ष के यज्ञ में
पधारें। परंतु दुरात्मा दक्ष ने यज्ञ में शिव जी को नहीं बुलाया और कह दिया कि वह
कपाल धारी है ।
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शिवजी से द्रोह रखने वाले दक्ष अपनी प्रिय पुत्री सती को भी नहीं
बुलाया कि वह कपाली की भार्या है। जब यज्ञ आरंभ हुआ तब उसमें भगवान शंकर को ना आया
देख शिवभक्त दधीचि ने सब देवताओं और ऋषियों से पूछा कि इस यज्ञ में भगवान शिव
क्यों नहीं आए हैं ?
उस समय दधीचि के यह बात सुनकर मूढ बुद्धि दक्ष ने मुस्कुरा कर कहा-
देवताओं के मूल विष्णु जी तो आ गए हैं , फिर शिवजी कि मुझे
क्या आवश्यकता है।
मैंने ब्रह्मा जी के कहने पर उसे अपनी कन्या दे दी , नहीं तो उस अकुलीन, माता-पिता से रहित, भूत प्रेतों के स्वामी, आत्माभिमानी, मूर्ख, स्तब्ध, मौनी और
ईर्ष्या करने वाले को कौन पूंछता है। वह इस कर्म के कदापि योग्य नहीं है। तब दधीचि
सब लोगों को सुनाते हुए बोले-
अयज्ञोयं महाजातो विना तेन शिवेन हि।
विनशो२पि विशेषेण ह्यत्र ते हि भविष्यति।। रु•स• 27-47
तुम चाहे जो कहो पर भगवान शंकर के बिना तो यह यज्ञ अपूर्ण ही रहेगा और इससे
तुम नाश को भी प्राप्त होगे। ऐसा कह दधीचि ऋषि उस यज्ञ से अकेले ही निकल कर अपने
आश्रम को चले गए और वहां जीतने शिव भक्त थे सभी दक्ष को श्राप देते हुए अपने अपने
आश्रम को चले गये।
दक्ष हंसने लगा और बोला कि शिवभक्त दधीचि चाहता ही नहीं कि तुम सब
देवताओं की पूजा हो। अतः आप सब इस यज्ञ को सफल बनाइए, सब
देवता और मुनीश्वर भी शिवजी की माया से मोहित हो गए।
ब्रह्माजी बोले- जिस समय देवता और ऋषिगण दक्ष के यज्ञ में उत्सव
करते हुए जा रहे थे , उस समय दक्ष पुत्री सती अपनी सखियों के
साथ गंधमादन पर्वत पर धारागृह में कौतुक पूर्वक अनेक क्रीडाएँ कर रही थीं।
उस समय सती ने देखा कि रोहणी से आज्ञा लेकर चंद्रमा भी दक्ष के यज्ञ
में जा रहे हैं। तब सती ने अपनी विजया नामक सखी से पूछा कि रोहणी से आज्ञा लेकर
चंद्रमा कहां जा रहे हैं ? सती के वचन सुनकर विजया तुरंत
चंद्रमा के पास गई और उससे पूछा ।
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चंद्रमा ने दक्ष महोत्सव में जाने का वृतांत कह सुनाया। उसे सुन
विजया ने आकर सती से कह दिया। यह सुन सती बडी विस्मित हुई और बार-बार यह विचार
करने लगी कि शिव जी को आमंत्रण क्यों नहीं आया और चिंता करने लगी।
वह शिव के पास गई और बोली कि मैंने सुना है कि मेरे पिता ने एक
महायज्ञ रचा है, सभी देवता और ऋषिगण उसमें एकत्र हुए हैं।
आपको मेरे पिता के यज्ञ में जाना क्यों नहीं सूझता है ? इसका
कारण बताइए ?
सब काम छोड़ करके आप मेरी प्रार्थना से मेरे साथ पिता के यज्ञ में
चलिए । सती के वचन शिवजी के हृदय में बांण से लगे- फिर भी वे इस प्रकार प्रिय
वचनों में बोले कि देवी तुम्हारे पिता दक्ष मुझसे वैमनस्य रखते हैं । इसी कारण
उन्होंने मुझे निमंत्रण नहीं दिया और-
अनाहुताश्च ये देवी गच्छन्ति पर मन्दिरम्।
अवमानं प्राप्नुवन्ति मरणादधिकं तथा।। रु•स• 28-26
जो बिना बुलाए दूसरों के घर जाते हैं वह मरण से भी अधिक अपमान पाते हैं । इस
कारण हमें दक्ष के यज्ञ में नहीं जाना चाहिए। यह सुन सती जी क्रुद्ध हो गई और शिव
जी से बोली- शंभू आप ही से यज्ञ सफल होता है ,परंतु इस पर भी
मेरे दुष्ट पिता ने आपको नहीं बुलाया, मैं यज्ञ में जाकर
इसका कारण जानना चाहती हूँ।
और पिता के घर बिना बुलाए भी जाना चाहिए तब भगवान शिव जी ने समझाया-
जदपि मित्र प्रभु पितु गुर गेहा। जाइअ बिनु बोलेहुं न संदेहा।।
तदपि विरोध मान जंह कोई। तहां गए कल्यानु न होई ।।
देवी विरोध मानकर जहां ना बुलाया जाए वहां नहीं जाना चाहिए, वहां जाने से कल्याण नहीं होता। लेकिन तब भी सती जी जाने की इच्छा नहीं
त्यागीं-
भांति अनेक शंभु समुझावा। भावी बस न ग्यानु उर आवा।।
सती जी का यह विचार देख सर्वज्ञ भगवान शंकर बोले देवी यदि
तुम्हारी वहां जाने की इच्छा ही है तो, मैं तुम्हें आज्ञा
देता हूं कि तुम अपने पिता के यज्ञ में जाओ। जब शिवजी ने इस प्रकार कहा तब सती जी
वस्त्र आभूषण धारण कर पिता के घर चलीं। शिवजी ने साठ हजार रौद्रगणों को उनके साथ
कर दिया ।
अब सती जी वहां जा पहुंची जहां विशाल यज्ञ हो रहा था।
पिता भवन जब गई भवानी। दक्ष त्रास काहूं न सनमानी।
सादर भलेहिं मिली एक माता। भगिनी मिली बहुत मुस्काता।।
दक्ष न कछु पूंछी कुसलाता। सतिहिं बिलोकि जरे सब गाता।।
सती को देखकर उनकी माता अस्किनी बहुत प्रेम से मिलीं, बहिने भी हंसते हुए मिली परंतु दक्ष तथा उनके अनुयायियों ने कुछ भी आदर नहीं
किया।