shiv puran hindi mein
उससे घायल हो दधीच मुनि पृथ्वी पर गिर पड़े और शुक्राचार्य
का स्मरण किए, शुक्राचार्य आकर दधीचि को पूर्ण रूप से स्वस्थ कर दिया और फिर
उन्होंने दधीचि ऋषि को वैदिक महामृत्युंजय मंत्र का उपदेश दिया।
उस मृत्युंजय मंत्र की आराधना और जाप से भगवान शिव प्रसन्न होकर
प्रगट हो गये। वरदान मांगने को बोले- तब दधीचि ऋषि बोले-
देव देव महादेव मह्यं देहि वरत्रयम्।
वज्रास्थित्व मवध्यत्व मदीनत्वं हिसर्वतः।। रु•स• 38-43
हे देव देव महादेव मुझे तीन वर दीजिए - पहला मेरी हड्डी वज्र की हो जाए, दूसरा कोई भी मेरा वध ना कर सके। तीसरा मैं सर्वथा अदीन यानी प्रसन्न
रहूं। भगवान शिव प्रसन्न होकर तथास्तु कह तीनों वर दिये।
मुनि दधीचि प्रसन्न होकर शीघ्र ही राजा छुव के स्थान पर आए और छुव
के मस्तक पर पादमूल से प्रहार किया । तब विष्णु की महिमा से गर्वित राजा छुव ने भी
क्रोधित होकर दधीचि की छाती में वज्र से प्रहार किया, परंतु
दधीचि को वज्र से कोई चोट नहीं आई। यह देख ब्रह्म पुत्र छुव बडा़ विस्मित हुआ।
मृत्युंजय के सेवक दधीचि ने उसे परास्त कर दिया , उस पराजय से लज्जित राजा छुव तपस्या करने चला गया, हरि
की आराधना किया तो भगवान विष्णु उसे दर्शन देने आए ।
shiv puran hindi mein
विष्णु भक्त छुव ने उनसे दधीचि द्वारा अपने अपमान की बात कह
मृत्युंजय का प्रभाव कहा। विष्णु जी ने कहा अवश्य शंकर के भक्तों को किसी का भय
नहीं है, उन्हें दुख देने से मुझ जैसे देवता के लिए भी श्राप
का कारण बन जाएगा।
भगवान ने कहा- हे राजन मैं आपके लिए दधीचि को जीतने का प्रयास
करूंगा। ब्रह्माजी बोले- नारद, एक दिन राजा छुव का कार्य
सिद्ध करने के लिए भगवान विष्णु महर्षि दधीचि के आश्रम में पहुंचे और उनसे कहा कि-
हे महर्षि आपसे वर मांगने आया हूं। उन्होंने नेत्र बंद करके ध्यान के द्वारा
विष्णु जी का सारा कपट जान लिया ।
राजा छुव ने कहा मैं समझ गया आप भगवान हैं, आप
अब इस ब्राह्मण वेष को त्याग दीजिये। राजा छुव के लिए मुझे छलने आए हैं। लज्जित
होकर भगवान विष्णु ने कहा- महामुनि आपका कहना सत्य है ! आप शिव भक्तों को किसी का
भय नहीं परंतु आप मेरे कहने से राजा छुव के पास जाकर उससे कह दो कि मैं तुमसे डरता
हूं ।
ऐसी बात सुनकर दधीचि हंसते हुए बोले कि- मैं शिवजी के प्रभाव से
कहीं और किसी से भी नहीं डरता, फिर उसससे क्या कहने जाऊं। इस
पर विष्णु जी को क्रोध आ गया और अपना चक्र सुदर्शन उठा महर्षि को मारना चाहा।
shiv puran hindi mein
परंतु ब्राह्मण पर वह नहीं चला। तब दधीचि ने कहा- शिव जी का अस्त्र
मुझ जैसे ब्राह्मणों के लिए नहीं है। यदि आप क्रुद्ध हैं तो क्रम से ब्रह्मास्त्र
आदि अस्त्रों का प्रयोग कीजिए ।
तब विष्णु जी दधीचि को पराक्रम हीन ब्राह्मण समझ कर अपना अस्त्र
चलाया तथा इन्द्रादि देवों ने भी बडे वेग से अपने अस्त्रों को चलाया । परंतु शिव
भक्त दधीचि ने मुट्ठी भर कुशा उठा कर उनपर छोडा तो, कुशा
कालाग्नि के समान त्रिशूल बन प्रलयाग्नि के समान अपनी ज्वाला से सभी देवताओं के
अस्त्रों को शांत कर काट दिया।
देवता पराक्रमहीन हो वहां से भाग चलें । केवल विष्णु जी बस युद्ध
करते रहे, भीषण युद्ध हुआ तब हे नारद मैं ब्रह्मा राजा छुव
को साथ ले उनका युद्ध देखन गया और उनको युद्ध करने से रोका।
देवताओं से कहा आप लोगों का प्रयास व्यर्थ है ,इस ब्राह्मण को आप लोग नहीं जीत सकते। तब भगवान विष्णु जी ने युद्ध बंद कर
दिया परंतु दधीचि का क्रोध सान्त न हुआ उन्होंने श्राप दे दिया कि समय आने पर
रुद्र की कोपाग्नि से भस्म हो जाओगे।
इसके बाद दधीचि को प्रणाम कर राजा छुव अपने घर को चला गया और विष्णु
आदि देवता भी अपने लोक में चले गए।
तदेवम् तीर्थमभवत् स्थानेश्वर इति स्मृतम्।
तब से वह स्थान स्थानेस्वर नामक तीर्थ के रूप में प्रसिद्ध हो गया।
स्थानेश्वर पर पहुंचकर मनुष्य शिवजी का सायुज्य प्राप्त करता है।
shiv puran hindi mein
( ब्रह्मा जी का उद्योग )
नारद जी बोले- महाभाग्य! जब वीरभद्र दक्ष का यज्ञ विध्वंस कर कैलाश
को गए तब क्या हुआ ? ब्रह्माजी बोले- नारद जब रुद्र की सेना
सै घायल देवताओं ने मुझे जाकर दक्ष यज्ञ विध्वंस समाचार कह सुनाया तो मैं देवताओं
को सुखी व यज्ञ को पूर्ण कैसे करें।
तब मैं शिवजी का स्मरण कर बैकुंठ गया और भगवान विष्णु की स्तुति की,
उन्होंने कहा कि दक्ष ने अपराध किया जो अपने यज्ञ में शिव जी को भाग
नहीं दिया, जिसके लिए हम सभी देवता शिवजी के अपराधी हैं । हम
सब को शिवजी की ही शरण में जाकर उनकी स्तुति करनी चाहिए।
तब मैं ब्रह्मा, विष्णु और सभी देवता कैलाश को
गए जहां दिव्य योगियों से सेवित श्रेष्ठ शिव जी विराजमान थे । तब उनके समीप जाकर
उन्हें प्रणाम कर प्रार्थना की - हे महादेव आपकी कृपा के बिना हम सब नष्ट हो गए
हैं आप हमारी रक्षा कीजिए । नाथ आप प्रशन्न होकर दक्ष के यज्ञ को पूर्ण करें।
भग देवता को आंख तथा पूषा देवता को दांत प्रदान करिए और सभी देवताओं
को स्वस्थ करिये और आज से यज्ञ के अवशिष्ट पदार्थ पर आपका भाग होगा।
ऐसा कह कर मुझ ब्रह्मा सहित विष्णु जी हाथ जोड़े शिव जी के चरणों
में गिर पड़े। तब भगवान शंकर प्रसन्न होकर देवताओं को धैर्य बंधाते हुए बोले-
देवों सुनो मैं तुमको क्षमा करता हूं। दक्ष का मैंने विध्वंस नहीं किया किंतु जो
दूसरों का बुरा चाहता है उसी का बुरा होता है ।
shiv puran hindi mein
भगवान शिव ने कहा- हे गणों दक्ष के सिर के स्थान पर बकरे का सिर लगा
दो, भग देवता सूर्य के नेत्र से देखेंगे, पूषा के दांत हो जाएंगे, मेरा विरोधक भृगु बकरे की
ही दाढ़ी मूछ पाएगा, गणों द्वारा सभी देवता जो अंग भंग हो गए
हैं वे स्वस्थ हो जाएंगे।
दक्ष को जब बकरे का सिर लगा जीवित होकर उठा और प्रसन्न चित्त हो
शंकर जी का दर्शन किया । उसका कलुषित हृदय निर्मल हो गया और उसने शिवजी की स्तुति
की - भगवान शंकर उसकी स्तुति से प्रसन्न हो गए।
उन्होंने सब की ओर कृपा दृष्टि से देखकर दक्ष से कहा- कि प्रजापति
दक्ष सुनो यद्यपि में स्वतंत्र हूं, पर भक्तों के वश में
हूं। भक्तों में ज्ञानी भक्त सबसे श्रेष्ठ है, ज्ञानी मेरा
ही स्वरूप है ,उससे अधिक प्रिय मुझे कोई नहीं है। तू दक्ष
केवल कर्मो के द्वारा ही संसार सागर से तरना चाहता था । तेरा यह कर्म मुझे अच्छा
ना लगा इसलिए मैंने तेरे यज्ञ का विध्वंस कर दिया ।
shiv puran hindi mein
अब तुम मुझे परमेश्वर जानकर बुद्धि पूर्वक ज्ञान पारायण हो सावधानी
से कर्म करो। तू यह जान कि मैं शंकर ही जगत की उत्पत्ति, स्थिति
और संघार का करता हूं और क्रिया के अनुसार विभिन्न नामों को धारण करता हूं ।
हरिभक्तो हि मां निन्देत्तथा शैवो भवेद्यदि।
तयोः शापा भवेयुस्ते तत्त्वप्राप्तिर्भवेन्न हि।। रु•स• 43-21
यदि कोई विष्णु भक्त मेरी निंदा करेगा और मेरा भक्त विष्णु की निंदा करेगा तो
आपको दिए हुए समस्त श्राप उन्हीं को प्राप्त होंगे और निश्चय ही उन्हें तत्व ज्ञान
की प्राप्ति नहीं हो सकती।
इस प्रकार शंकर जी के वचनों को सुन सभी देवता मुनि प्रसन्न हो गए ।
दक्ष शीघ्र ही शिवजी का नाम जपने लगा, शिव जी की कृपा से
उसने अपना यज्ञ पूर्ण किया। सब देवताओं के साथ शिव जी को भी भाग मिला दक्ष ने
ब्राह्मणों को बहुत सा दान दिया।