देव-तर्पण / ऋषि तर्पण / पितृ तर्पण tarpan karne ki vidhi
स्नानाङ्ग-तर्पण-
गङ्गादि तीर्थोंमें स्नानके पश्चात्
स्नानाङ्ग-तर्पण करे । संध्याके पहले इसका करना आवश्यक माना गया है। यही कारण है
कि अशौचमें भी इसका निषेध नहीं होता तथा जीवित-पितृकोंके लिये भी यह विहित है । जीवित-पितृकोंके
लिये केवल इसका अन्तिम अंश त्याज्य होता है, जिसका आगे कोष्ठकमें निर्देश कर दिया गया है।
इसमें तिलक जलसे ही किया जाता है। बायें हाथमें जल लेकर दाहिने अँगूठेसे
ऊर्ध्वपुण्ड्र कर ले। तदनन्तर तीन अंगुलियोंसे त्रिपुण्ड्र करे ।
• जलाञ्जलि देनेकी रीति यह है कि दोनों हाथोंको
सटाकर अञ्जलि बना ले। इसमें जल भरकर गौके सींग-जितना ऊँचा उठाकर जलमें ही अञ्जलि
छोड़ दें । इसमें देव, ऋषि, पितर एवं अपने
पिता, पितामह
आदिका तर्पण होता है ।
देव-तर्पण / ऋषि तर्पण / पितृ तर्पण tarpan karne ki vidhi
( क ) देव-तर्पण - (इसे
सपितृक भी करे) सव्य होकर,
पूरबकी
ओर मुँह कर अंगोछेको बायें कंधेपर रखकर देवतीर्थसे मन्त्र पढ़-पढ़कर एक-एक
जलाञ्जलि दे – ॐ ब्रह्मादयो
देवास्तृप्यन्ताम् ( १ ) । ॐ भूर्देवास्तृप्यन्ताम् ( १ ) । ॐ
भुवर्देवास्तृप्यन्ताम् ( १ ) । ॐ स्वर्देवास्तृप्यन्ताम् ( १ ) | ॐ भूर्भुवः
स्वर्देवास्तृप्यन्ताम् ( १ ) ।
(ख) ऋषि तर्पण – (इसे
कर सपितृक
भी करे) - उत्तरकी ओर मुँह निवीती होकर (जनेऊको मालाकी तरह गलेमें पहनकर) और गमछेको
भी मालाकी तरह लटकाकर प्रजापतितीर्थसे दो-दो जलाञ्जलि जलमें छोड़े। ( २ ) । ॐ
भुवऋषयस्तृप्यन्ताम् ( २ ) । ॐ स्वऋषयस्तृप्यन्ताम् ॐ सनकादयो
मनुष्यास्तृप्यन्ताम् ( २ ) । ॐ भूऋषयस्तृप्यन्ताम् ( २ ) । ॐ भूर्भुवः स्वर्ऋषयस्तृप्यन्ताम्
( २ ) । दक्षिणकी ओर मुँह कर अपसव्य होकर (जनेऊको दाहिने कंधे और
(ग) पितृ तर्पण -
(सपितृक इसका कुछ अंश करे ) - बायें हाथके नीचे करके) गमछेको भी दाहिने कंधेपर
रखकर पितृतीर्थसे तीन-तीन जलाञ्जलि दे। (सपितृक जनेऊको केवल पहुँचे तक - ही
रखे, बायें
हाथके नीचे न करे ) –
'प्राचीनावीती त्वाप्रकोष्ठात्' (आचाररत्न) ।
कव्यवाडनलादयः पितरस्तृप्यन्ताम्
(३)। ॐ
चतुर्दशयमास्तृप्यन्ताम् ( ३ ) । ॐ भूः पितरस्तृप्यन्ताम् ( ३ ) । ॐ भुवः
पितरस्तृप्यन्ताम् ( ३ ) । ॐ स्वः पितरस्तृप्यन्ताम् ( ३ ) । ॐ भूर्भुवः
स्वः पितरस्तृप्यन्ताम् ( ३ ) ।
(इसके आगेका कृत्य जीवित- पितृक न करे )
देव-तर्पण / ऋषि तर्पण / पितृ तर्पण tarpan karne ki vidhi
(ॐ ॐ अमुक गोत्रा
अस्मत्पितृपितामहप्रपितामहास्तृप्यन्ताम् ( ३ ) ।
अमुक गोत्रा
अस्मन्मातृपितामहीप्रपितामह्यस्तृप्यन्ताम् ( ३ )।
अमुक गोत्रा अस्मन्मातामहप्रमातामहवृद्धप्रमातामहाः सपत्नीकास्तृप्यन्ताम्
( ३ )। ॐ ब्रह्मादिस्तम्बपर्यन्तं जगत्तृप्यताम् ( ३ ) ।
इसके बाद तटके पास आकर जलमें स्थित
होकर भूमिपर एक जलाञ्जलि दे, जिसका मन्त्र
यह है -
अग्निदग्धाश्च ये जीवा
येऽप्यदग्धाः कुले मम ।
भूमौ दत्तेन तोयेन तृप्ता
यान्तु परां गतिम् ॥
जलसे बाहर आकर निम्नलिखित मन्त्रसे
दाहिनी ओर शिखाको पितृतीर्थ (अँगूठे और तर्जनीके मध्यभाग) से निचोड़े-
लतागुल्मेषु वृक्षेषु
पितरो ये व्यवस्थिताः ।
ते सर्वे तृप्तिमायान्तु
मयोत्सृष्टैः शिखोदकैः ॥
तर्पणके बादका कृत्य -- अब
उपवीती होकर (जनेऊको बायें कंधेपर और दाहिने हाथके नीचे कर) आचमन करे और बाहर एक
अञ्जलि यक्ष्माको दे ।
यन्मया दूषितं तोयं शारीरं
मलसम्भवम् ।
तस्य पापस्य शुद्धयर्थं
यक्ष्माणं तर्पयाम्यहम् ॥
विश्वामित्रस्मृ.
जीवितपितृक वस्त्र निचोड़कर संध्या
करने बैठे, किंतु
जिन्हें तर्पण करना है, वे अभी
वस्त्रको न निचोड़ें, तर्पणके
बाद निचोड़ें ।
स्नानके बाद यदि देह न पोंछी जाय, जलको यों ही
सूखने दिया। जाय तो अधिक अच्छा है, क्योंकि सिरसे टपकनेवाले जलको देवता, मुखभागसे
टपकनेवाले जलको पितर, बीचवाले
भागसे टपकनेवाले जलको गन्धर्व और नीचेसे गिरनेवाले जलको सभी जन्तु पीते हैं । यदि
शक्ति न हो तो गीले अथवा धोये गमछेसे पोंछकर सूखा वस्त्र पहने ।
गङ्गादि तीर्थों में स्नान करनेपर
शरीर न पोंछनेका विशेष ध्यान रखना चाहिये। अन्य स्थलोंपर कुछ क्षण रुककर गमछेसे
शरीर पोंछ सकते हैं। स्नानके बाद गीले वस्त्रसे मल-मूत्र न करे।
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