यं लब्ध्वा चापरं लाभं- bhagavad gita in hindi shlok
यं लब्ध्वा चापरं लाभं मन्यते नाधिकं ततः ।
यस्मिन्स्थितो न दुःखेन गुरुणापि विचाल्यते ॥
(गीता ६ । २२)
जिस स्थितिकी प्राप्तिके बाद वह कभी विचलित नहीं होता। मनुष्यके विचलित होनेके दो कारण होते हैं- एक तो जब वह प्राप्त वस्तुसे अधिक पानेकी आशा करता है; दूसरे, जहाँ वह रहता है, वहाँ यदि कष्ट आ पड़ता है तो वह विचलित होता है।
इन दोनों कारणोंका निराकरण करते हुए भगवान् कहते हैं कि उस ज्ञेय-तत्त्वकी प्राप्तिसे बढ़कर कोई लाभ नहीं है। उसकी दृष्टिमें भी उससे बढ़कर कोई अधिक लाभ नहीं दीखता; क्योंकि उससे बढ़कर कोई तत्त्व है ही नहीं व्यक्तित्वके अभावमें भारी से भारी दुःख आ पड़नेपर भी विचलित कौन हो और कैसे हो ? वह महापुरुष तो सदा निर्विकार-रूपमें स्थित रहता है। वह गुणातीत हो जाता है ।
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