न त्वेवाहं जातु नासं न त्वं नेमे bhagavad gita in hindi shlok
भगवान्ने गीतामें सबसे पहले यह उपदेश दिया-
न त्वेवाहं जातु नासं न त्वं नेमे जनाधिपाः ।
न चैव न भविष्यामः सर्वे वयमतः परम् ॥
(गीता २ | १२)
मैं, तू और ये राजा लोग पहले नहीं थे – यह बात भी नहीं है तथा आगे नहीं रहेंगे—यह बात भी नहीं है। ऐसा कहनेका तात्पर्य क्या हुआ ? कि अभी जो यह परिस्थिति है,
यह नहीं रहेगी। जो वस्तु, परिस्थिति नहीं रहेगी, वह आ गयी तो क्या हो गया ? और वह चली गयी तो क्या हो गया ? नाशवान्के मिलनेसे क्या राजी होते हो ? सम्मान मिल गया तो क्या हो गया ? सम्मानसे आपको क्या मिला ? केवल धोखा मिला। धोखेके सिवाय कुछ नहीं मिला।
आप जान-जानकर धोखा क्यों खाते हो ? आपको आजसे ही होश आनी चाहिये कि अब हम सम्मानमें राजी नहीं होंगे और अपमानमें नाराज नहीं होंगे।
कारण कि आदर भी ठहरनेवाला नहीं है और निरादर भी ठहरनेवाला नहीं है। सुख भी ठहरनेवाला नहीं है और दुःख भी ठहरनेवाला नहीं है। यह मिला तो क्या फर्क पड़ा और नहीं मिला तो क्या फर्क पड़ा ? जो नाशवान् ही है, वह मिला तो भी नहीं मिला और नहीं मिला तो भी नहीं मिला।
वास्तवमें नाशवान्का सदा ही वियोग है, संयोग है ही नहीं। संयोग केवल आपका माना हुआ है। जिसका सदा ही वियोग हैं, जो आपके साथ रहनेवाला है ही नहीं, उसमें राजी-नाराज क्या हों ? यह बात सच्ची है कि नहीं ?
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