जन्म कोटि लगि रगर हमारी manas prasidh chaupai

 जन्म कोटि लगि रगर हमारी manas prasidh chaupai

पार्वतीजीकी नारदके उपदेशपर दृढ़ मान्यता थी - 

जन्म कोटि लगि रगर हमारी । बरउँ संभु न त रहउँ कुआरी ।। 
तजउँ न नारद कर उपदेसू । आपु कहहिं सत बार महेसू |
(मानस १ / ८११३) 
भगवान् शङ्कर भी कहें तो भी नारदजीके उपदेशको नहीं छोइँगी । भगवान्‌से भूल हो सकती है, पर नारदजीसे भूल नहीं हो सकती। इसको कहते हैं मानना। शरीर और मैं दो हैं। ब्रह्माजी भी कह दें कि शरीर और तुम एक हो तो उनकी भूल हो सकती है, पर हमारी नहीं हो सकती। 

हमारी समझमें न भी आये तो भी बात तो ऐसी ही है। इस प्रकारकी दृढ़ मान्यता ज्ञानके समान उद्धार करनेवाली है। यह परोक्ष नहीं है। आपने विवाह किया तो स्त्रीको अपनी मान लिया। अब इसमें सन्देह होता है क्या ? विपरीत धारणा होती है क्या? बताओ। माननेके सिवाय और इसमें क्या है ? स्त्री सती हो जाती है, आगमें जल जाती है-केवल माननेके कारण। जलनेपर भी आग बुरी नहीं लगती।

जन्म कोटि लगि रगर हमारी manas prasidh chaupai

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