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शिव पुराण कथा हिंदी में-5 shiv puran katha full in hindi

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शिव पुराण कथा हिंदी में-5 shiv puran katha full in hindi

शिव पुराण कथा हिंदी में-5 shiv puran katha full in hindi

 शिव पुराण कथा हिंदी में-5 shiv puran katha full in hindi

शिव पुराण कथा हिंदी में-5 shiv puran katha full in hindi

व्यास जी पूर्व काल में मुझे भी ऐसा भ्रम हुआ था और मंदराचल पर्वत पर जाकर तप करने लगा था, परंतु दयालु शिवजी की आज्ञा से नंदीकेश्वर ने आकर मुझे यह बतलाया कि शिवजी के श्रवण कीर्तन और भजन से मुक्ति प्राप्त हो जाती है तब मेरा सारा भ्रम दूर हो गया। अतः हे ब्रह्मन आप भी ऐसा करें। यह कहकर सनत कुमार जी चले गए।

इस पर ऋषियों ने पूछा- कि जो श्रवण, कीर्तन और मनन नहीं करता उस जीव की मुक्ति कैसे होती है तथा बिना यत्न किए वह कैसे मुक्ति प्राप्त कर सकता है ?


(लिंगेश्वर परिचय)



सूत जी बोले- हे ऋषियों
श्रवणादित्रिकेशक्तो लिङ्गं वेरं च शाङ्करम्।
संस्थाप्य नित्यमभ्यर्च्य तरेत् संसार सागरम्।।

जो श्रवण कीर्तन और मनन इन तीनों साधनों के अनुष्ठान में समर्थ ना हो वह भगवान शंकर के लिंग एवं मूर्ति की स्थापना कर नित्य उसकी पूजा करके संसार सागर से पार हो सकता है ।


ऋषिगण बोले- मूर्ति में सर्वत्र देवताओं की पूजा होती है परंतु भगवान शिव की पूजा सब जगह मूर्ति और लिंग में भी क्यों की जाती है?
सूतजी बोले- हे मुनीश्वरों आप लोगों का यह प्रश्न बड़ा ही उत्तम है व पवित्र है । इस विषय में तो-
अत्र वक्ता महादेवो नान्योस्ति पुरुषः क्वचित्। वि-5-1
महादेव जी ही वक्ता हो सकते हैं कोई पुरुष कहीं और कभी भी इसका यथार्थ प्रतिपादन नहीं कर सकता । इस विषय में भगवान शिव जी ने जो कहा है और उसे मैंने गुरु जी के मुख से सुना है उसी तरह में उसका वर्णन करूंगा।

एकमात्र भगवान शिव ही ब्रह्म रूप होने के कारण निष्कल निराकार कहे गए हैं । रूपवान होने के कारण उनको शकल साकार भी कहा जाता है। शिवलिंग शिव के निराकार स्वरूप का प्रतीक है और शकल ( साकार ) होने के कारण मूर्ति विग्रह की भी पूजा होती है ।
भगवान शिव के दोनों स्वरूपों की पूजा होती है अन्य देवों में यह तत्व नहीं है यही कारण है कि केवल ब्रह्म तत्व शंकर जी को प्राप्त है । सदाशिव का ब्रह्मत्व वेदों के सारभूत उपनिषदों से सिद्ध होता है ।

वहां प्रणव (ओंकार) के तत्व रूप से भगवान शिव का ही प्रतिपादन किया गया है । इसी प्रकार पूर्व में मंदराचल पर्वत पर ज्ञानवान ब्रह्मपुत्र सनत कुमार मुनि ने नंदिकेश्वर से प्रश्न किया था । जिस पर नंदीकेश्वर ने स्पष्ट कहा था कलापूर्ण भगवान शिव का लिंगेश्वर रूप में बेर पूजन लोक सम्मत है और वेद ने जिस को आज्ञा दी है ।


सनत कुमार जी ने लिंगेश्वर की उत्पत्ति पूछीं तो नंदिकेश्वर ने कहा-
पुरा कल्पे महाकाले प्रपन्ने लोक विश्रुते।
अयुध्येतां महात्मानौ ब्रह्म विष्णु परस्परम्।। वि-5-27

कि पूर्व कल्प के बहुत काल बीत जाने पर जब ब्रह्मा और विष्णु में युद्ध हुआ तो उनके बीच निष्कल शिव जी ने स्तंभ रूप प्रकट होकर विश्व संरक्षण किया था और तभी से महादेव जी का निष्कल लिंग और शकल बेर जगत में प्रचलित हुए ।

बेर मात्र को देवताओं ने भी ग्रहण किया इससे शिवजी के अतिरिक्त बेर से देवताओं की पूजा होने लगी और उसका वही फल दाता हुआ ।

परंतु शिवजी के लिंग और बेर ( मूर्ति ) दोनों ही पूजनीय हुए।
नंदिकेश्वर बोले- पूर्व में जब श्री विष्णु जी अपने सहायकों सहित श्री लक्ष्मी जी के साथ शेषसैया पर लेटे थे,तब देवताओं में श्रेष्ठ ब्रह्मा जी स्वयं ही वहां जा पहुंचे और विष्णु जी को पुत्र कहकर पुकारने लगे।

पुत्र उठ मुझे देख मैं तेरा ईश्वर यहां आया हूं । इस पर विष्णु जी को भी क्रोध आया परंतु वह उसे दबा लिये और ब्रह्मा जी से कहा कि पुत्र तुम्हारा कल्याण हो आओ बैठो । मैं तुम्हारा पिता हूं कहो क्या बात है ?


ब्रह्माजी बोले समय के फेर से तुम्हें अभिमान हो गया है, मैं तुम्हारा रक्षक ही हूं, समस्त जगत का पितामह हूं । भगवान विष्णु ने कहा चोर तू अपना बड़प्पन क्यों दिखाता है सारा जगत तो मुझमें निवास करता है तू मेरी नाभि कमल से प्रकट हुआ है और मुझसे ही ऐसी बातें करता है ।

नंदिकेश्वर बोले- जब इस प्रकार रजोगुण से मुग्ध हो दोनों में विवाद होने लगा, तब यह दोनों अपने अपने को प्रभु प्रभु कहते हुए एक-दूसरे का वध करने को तैयार हो गए । युद्ध छिड़ गया हंस और गरुण पर बैठे दोनों ईश्वर शिव माया से मोहित होकर आपस में घोर युद्ध करने लगे । उनके वाहन भी लड़ने लगे।

ब्रह्मा जी के वक्षस्थल पर विष्णु जी ने अनेक अस्त्रों का प्रहार कर उन्हें व्याकुल कर दिया। इससे कुपित होकर ब्रह्माजी ने भी उनके वक्ष स्थल पर भयानक प्रहार किया। एक दूसरे के प्रति युद्ध से श्रमित विष्णु जी हांफने लगे। उस भयंकर युद्ध को देखने के लिए सभी देवगण अपने अपने विमानों में बैठ युद्ध स्थल पर पहुंच गए ।

यहां युद्ध में तत्पर महा ज्ञानी विष्णु ने अतिशय क्रोध के साथ दीर्घ निश्वास लेते हुए ब्रह्मा जी को लक्ष्य कर भयंकर माहेश्वर अस्त्र का संधान किया। ब्रह्मा ने भी अतिशय क्रोध में आकर विष्णु के हृदय को लक्षकर ब्रह्मांड को कम्पित करने वाला भयंकर पाशुपत अस्त्र का प्रयोग किया ।

सूर्य के समान हजारों मुख वाले अत्यंत उग्र तथा प्रचंड आंधी के समान भयंकर दोनों अस्त्र आकाश में प्रगट हो गए । उस भयंकर युद्ध को देखकर देवता गण सभी बहुत दुखी हो गए और आपस में कहने लगे-
सृष्टिः स्थितिश्च संहारस्तिरोभावोप्यनुग्रहः।
यस्मात् प्रवर्तते तस्मै ब्रम्हणे च त्रिशूलिने।। वि-6-20

जिसके द्वारा सृष्टि ,स्थिति, प्रलय ,तिरोभाव तथा अनुग्रह होता है और जिसकी कृपा के बिना इस भूमंडल पर अपनी इच्छा से एक तृण का भी विनाश करने में कोई भी समर्थ नहीं है। उन त्रिशूलधारी ब्रह्म स्वरूप महेश्वर को नमस्कार है।

देवता गण जब कैलाश शिखर पर गए ,महादेव जी अपनी सभा में उमा सहित सिंहासन पर विराजमान थे। देवताओं ने साष्टांग दंडवत कर महादेव जी को नमस्कार किया। महादेव जी बोले पुत्रों- सब कुशल से तो है ना ? मैंने सुना है कि ब्रह्मा और विष्णु परस्पर युद्ध कर रहे हैं और तुम लोग बड़े दुखी हो, अच्छा तो मैं अपने गणों के साथ चलता हूं। तुम लोग भय ना करो।

यह कह कर शिव जी ने अपने गणों को वहां चलने की आज्ञा दी साथ ही स्वयं भी अपने भद्ररथ पर आरूढ़ हो चलने को तैयार हुए। शिवजी बादलों में छुप कर ब्रह्मा विष्णु का युद्ध देखने लगे । शिवजी ने देखा कि दोनों एक दूसरे के वध की इच्छा से माहेश्वर और पाशुपत अस्त्र का प्रयोग कर रहे हैं ।

तब शिव जी कृपा करते हैं उनका युद्ध शांत करने के लिए-
महानलस्तम्भविभीषणाकृति
र्बभूव तन्मध्यतले स निष्कलः। । वि-7-11

निराकार भगवान शंकर इस अकाल प्रलय को आया देखकर एक भयंकर विशाल अग्नि स्तंभ के रूप में उन दोनों के बीच प्रकट हो गए ।

संसार को नाश करने में सक्षम वह दोनों महा दिव्यास्त्र अपने तेज सहित उस महान अग्नि स्तंभ के प्रगट होते ही अपने तेज सहित तत्क्षण शांत हो गए । उस अद्भुत दृश्य को देखकर ब्रह्मा विष्णु परस्पर कहने लगे यह इंद्रियातीत अग्नि स्वरूप स्तंभ क्या है ? हमें इसका पता लगाना चाहिए ।

ऐसा निश्चय करके दोनों वीर उसकी परीक्षा लेने के लिए बहुत ही शीघ्र वहां से चले । भगवान विष्णु ने शूकर का रूप धारण किया और स्तम्भ के जड़ की खोज में चले। ब्रह्मा भी हंस का रूप धारण करके उसका अंत खोजने के लिए चल पड़े।

विष्णु जी पाताल में बहुत दूर तक चले गए परंतु स्तंभ का अंत ना मिला तब वह पुनः युद्ध भूमि में लौट आए।

इधर आकाश मार्ग से जाते हुए ब्रह्मा जी ने मार्ग में अद्भुत केतकी (केवड़ा) के पुष्प गिरते देखा, अनेक वर्षों से गिरते रहने पर भी वह ताजा और सुगंध युक्त था।

ब्रह्मा विष्णु के विग्रह पूर्ण कृत्य को देखकर भगवान शंकर हंस पड़े जिसके कंपन के कारण उनका मस्तक हिला और वह श्रेष्ठ केतकी पुष्प उन दोनों के ऊपर कृपा करने के लिए गिरा था ।

ब्रह्माजी उससे पूछा- हे पुष्पराज तुम्हें किसने धारण कर रखा था और तुम क्यों कर रहे हो ? केतकी ने उत्तर दिया इस पुरातन और अप्रमेय स्तम्भ के बीच से मैं बहुत समय से गिर रहा हूं फिर भी इस के मध्य को ना देख सका अतः आप अंत देखने की आशा छोड़ दें।

ब्रह्मा जी ने कहा मैं तो हंस का रूप लेकर इसका अंत देखने के लिए यहां आया हूं। अब हे मित्र मेरा एक अभिलाषित काम तुम्हें करना पड़ेगा । विष्णु के पास मेरे साथ चलकर तुम्हें इतना कहना है कि ब्रह्मा ने इस स्तंभ का अंत देख लिया है । हे अच्युत मैं इसका साक्षी हूं ।

इधर ब्रह्मा केतकी के साथ युद्ध स्थल में आए और कहा हे हरे मैंने इस स्तंभ का अग्रभाग देख लिया है इसका साक्षी यह केतकी का पुष्प है। तब केतकी ने भी झूठा समर्थन कर दिया।

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