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शिव पुराण कथा हिंदी में-13 maha shiv puran in hindi pdf

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शिव पुराण कथा हिंदी में-13 maha shiv puran in hindi pdf

शिव पुराण कथा हिंदी में-13 maha shiv puran in hindi pdf

 शिव पुराण कथा हिंदी में-13 maha shiv puran in hindi pdf

शिव पुराण कथा हिंदी में-13 maha shiv puran in hindi pdf

जिस समय प्रलय हुआ उस समय समस्त चराचर जगत नष्ट हो गया, सर्वत्र केवल अंधकार ही अंधकार था । ना सूर्य ही दिखाई देते थे और अन्याय ग्रहों तथा नक्षत्रों का भी पता नहीं था।
अचन्द्र मनहोरात्र मनग्न्य निलभूजलम्।
ना चंद्र था, ना दिन होता था, ना रात होती थी, अग्नि, पृथ्वी, वायु और जल की भी सत्ता नहीं थी। उस समय प्रधान तत्व ( अव्याकृत प्रकृति ) से रहित सुना आकाश मात्र शेष था।

दूसरे किसी तेज की उपलब्धि नहीं होती थी, अदृष्ट आदि का भी अस्तित्व नहीं था, शब्द और स्पर्श भी साथ छोड़ चुके थे। इस प्रकार सब ओर निरंतर सूचीभेद्य घोर अंधकार फैला हुआ था। उस समय ( तत्सत ब्रह्म ) इस श्रुति में जो सत् सुना जाता है एकमात्र वहीं शेष था ।
अमनोगोचरं वाचां विषयं न कदाचन।
अनामरूप वर्णं च न च स्थूलं न यत्कृशम्।।
अहृस्वदीर्घमलघु गुरुत्वपरिवर्जितम्।
न यत्रोपचयः कश्चित्तथा नोपचयोपि च।। रु•सृ• 6-9,10
वह सत्तत्व मन का विषय नहीं है, वाणी को भी वहां तक कभी पहुंच नहीं होती, वह नाम तथा रूप रंग से भी शून्य है। वह ना स्थूल है, न कृश है, न हृस्व है, ना दीर्घ है। ना लघु है और ना गुरु है उसमें ना कभी वृद्धि होती है ना कभी ह्यास ही होता है। वही परम सत् ब्रह्म जब उसके भीतर एक से अनेक होने की इच्छा संकल्प उदित हुआ।
तब वह निराकार परमात्मा ने अपनी लीला शक्ति से अपने लिए मूर्ति आकार की कल्पना की, वह मूर्ति संपूर्ण ऐश्वर्य गुणों से संपन्न सर्वज्ञानमई सर्वकारिणी, सर्वाद्या, सब कुछ देने वाली और संपूर्ण संस्कृतियों का केंद्र थी।

उस समय एकाकी रहकर स्वेच्छानुसार बिहार करने वाले उन सदाशिव ने अपने विग्रह से स्वयं ही एक स्वरूप भूता शक्ति की सृष्टि की जो उनके अंग से कभी अलग होने वाली नहीं थी । उस पराशक्ति को प्रधान प्रकृति , गुणवती, माया, बुद्धि तत्व की जननी तथा विकार रहित बताया गया है ।
सा शक्तिरम्बिका प्रोक्ता प्रकृतिः सकलेश्वरी।
त्रिदेव जननी नित्या मूल कारण मित्युत।। रु•सृ•6-21
वह शक्ति अंबिका कही गई है , उसी को प्रकृति, सर्वेश्वरी, त्रिदेव जननी, नित्या और मूल कारण भी कहते हैं । सदाशिव द्वारा प्रकट की गई उस शक्ति की आठ भुजाएं हैं। उस शुभलक्षणा देवी के मुख की शोभा विचित्र है। वह अकेले ही अपने मुख मंडल में सदा पूर्णिमा के एक सहस्त्र चंद्रमाओं की कांति धारण करती है।

( काशीपुरी प्राकट्य )

उन काल रूपी ब्रह्म ने एक समय शक्ति के साथ शिवलोक नामक क्षेत्र का निर्माण किया था।
तदेव काशिकेत्येतत्प्रोच्यते क्षेत्र मुत्तमम्।।
उस उत्तम क्षेत्र को काशी ही कहते हैं । वह परम निर्वाण या मोक्ष का स्थान है, जो सब के ऊपर विराजमान है। ए प्रिया प्रियतम रूप शक्ति और शिव जो परम आनंद स्वरूप हैं, उस मनोरम क्षेत्र में निवास करते हैं। वह काशीपुरी परमानंद स्वरूपिणी है।

हे मुने- शिव और शिवा ने प्रलय काल में भी कभी उस क्षेत्र को अपने सानिध्य से मुक्त नहीं किया इसीलिए विद्वान पुरुष उसे अविमुक्त क्षेत्र भी कहते हैं। वह क्षेत्र आनंद का हेतु है इसीलिए पिनाक धारी शिव ने पहले उसका नाम आनंदवन रखा था। उसके बाद वह अविमुक्त के नाम से प्रसिद्ध हुआ ।

हे देवर्षि - एक समय उस आनंद वन में भ्रमण करते हुए शिवा और शिव के मन में यह इच्छा हुई कि किसी दूसरे पुरुष की भी सृष्टि करनी चाहिए, जिस पर सृष्टि संचालन का महान भार रखकर हम दोनों केवल काशी में रहकर इच्छानुसार विचरण करें और निर्वाण धारण करें। वही पुरुष हमारे अनुग्रह से सदा सबकी सृष्टि करे, वही पालन और अंत में वही सब का संघार भी करे।
चेतः समुद्र माकुञ्च्य चिन्ता कल्लोललोलितम्।
सत्त्वरत्नं तमोग्राहं रजोविद्रु मवल्लितम्।। रु•सृ• 6-35

यह चित्त एक समुद्र के समान है । इसमें चिंता की उत्ताल तरंगे उठ उठ कर इसे चंचल बनाए रहती हैं । इसमें सतोगुण रूपी रत्न, तमोगुण रूपी ग्राह और रजोगुण रूपी मूंगे भरे हुए हैं।
इस विशाल चित्त समुद्र को संकुचित करके हम दोनों उस पुरुष के प्रसाद से आनंद कानन ( काशी ) में सुख पूर्वक निवास करें। यह काशी वह स्थान है जहां हमारी मनोवृति सब ओर से सिमटकर इसी में लगी हुई है। तथा जिसके बाहर का जगत चिंता से आतुर प्रतीत होता है।

ऐसा निश्चय करके शक्ति सहित सर्वव्यापी परमेश्वर शिव ने अपने वाम भाग के दसवें अंग पर अमृत का सिंचन किया। उसी समय एक पुरुष प्रकट हुआ जो तीनों लोकों में सबसे अधिक सुंदर था । वह शान्त तथा उसमें सतोगुण की अधिकता थी तथा वह गंभीरता का अथाह सागर था । उसके श्री अंगों पर सुवर्ण सदृश कांति वाले दो सुंदर रेशमी पीतांबर शोभा दे रहे थे। तदनन्तर उस पुरुष ने परमेश्वर शिव को प्रणाम करके कहा- हे स्वामी मेरे नाम निश्चित कीजिए और काम बताइए ?

उस पुरुष की बात सुनते ही माहेश्वर भगवान हंसकर मेघ के समान गंभीर वाणी में उनसे कहने लगे-
विष्ण्विति व्यापकत्वात्ते नाम ख्यातं भविष्यति।
बहून्यन्यानि नामानि भक्तसौख्य कराणि हि।। रु•सृ• 6-43
हे वत्स व्यापक होने के कारण तुम्हारा विष्णु नाम विख्यात होगा। इसके अतिरिक्त और भी बहुत से नाम होंगे जो भक्तों को सुख देने वाले होंगे ।

तुम सुस्थिर होकर उत्तम तप करो क्योंकि वही समस्त कार्यों का साधन है । ऐसा कहकर भगवान शिव ने श्वास मार्ग से श्री विष्णु जी को वेदों का ज्ञान प्रदान किया ।

भगवान विष्णु के बारह हजार दिव्य वर्षों तक तपस्या करके भी शिव का दर्शन प्राप्त नहीं हुआ । इसी बीच शिव की मंगलमय आकाशवाणी हुई कि संदेह दूर कर पुनः तपस्या करिए । शिव की वाणी को सुनकर विष्णु ने ब्रह्म में ध्यान को अवस्थित कर पुनः दीर्घ काल तक अत्यंत कठिन तपस्या की । ब्रह्म की ध्यानावस्था में ही विष्णु जी को बोध हुआ वे प्रसन्न होकर यह सोचने लगे कि वह महान तत्व है क्या?

उस समय शिव की इच्छा से तपस्या के परिश्रम मे निरत विष्णु के अंगों से अनेक प्रकार की जलधाराएं निकलने लगी। उस जल से सारा सूना आकाश व्याप्त हो गया। वह ब्रह्म रूप जल अपने स्पर्श मात्र से सब पापों का नाश करने वाला सिद्ध हुआ ।

उस जल में भगवान विष्णु बहुत कालों तक सोते रहे। नार अर्थात जल में शयन करने के कारण ही उनका नाम नारायण यह श्रुति सम्मत नाम प्रसिद्ध हुआ। उस समय उन परम पुरुष नारायण के अतिरिक्त दूसरी कोई प्राकृत वस्तु नहीं थी। उसके बाद उनसे सभी तत्व प्रगट हुए। प्रकृति से महकत्व प्रगट हुआ और महतत्व से सत्वादि तीनों गुण।

इन गुणों के भेद से ही त्रिविध अहंकार की उत्पत्ति हुई। अहंकार से पांच तन्मात्राएं उत्पन्न हुई और इन तन्मात्राओं से पांच भूत प्रगट हुए। उसी समय ज्ञानेंद्रियों और कर्मेंद्रियों का भी प्रादुर्भाव हुआ।

हे मुनि श्रेष्ठ - इस प्रकार मैंने आपको तत्वों की संख्या का वर्णन किया। इनमें से पुरुष को छोड़कर शेष सारे तत्व प्रकृति से प्रकट हुए हैं । इसलिए सब के सब जड़ है । तत्वों की संख्या चौबीस है ।उस समय एकाकार हुए चौबीस तत्वों को ग्रहण करके वे परम पुरुष नारायण भगवान शिव की इच्छा से ब्रह्म रूप जल में सो गए।

 



ब्रह्माजी बोले- श्रीमन्नारायण के शयन करने पर शिवजी की इच्छा से नाभि में से कमल की उत्पत्ति हुई जिसकी अनंत योजन की ऊंचाई थी। पार्वती सहित शिव जी ने मुझे उत्पन्न किया मेरे चार मुख, लाल मस्तक पर त्रिपुंड लगा था, मैंने उस कमल के अतिरिक्त और कुछ भी नहीं देखा।

कुछ क्षण पश्चात मुझे बुद्धि प्राप्त हुई और कमल के नीचे मैं अपने कर्ता को ढूंढने लगा, तब एक एक नाल को पकड़ता हुआ सौ वर्ष तक नीचे को चला किंतु वहां मैंने कमल की जड़ को ना पाया। फिर मैं कमल के ऊपर जाने की इच्छा करने लगा।

हे मुने- जब इस कमल नाल के मार्ग द्वारा मैं ऊपर आया वहां मुझे तप करने की मंगलमय वाणी सुनाई पड़ी । आकाशवाणी को सुनकर मैं अपने पिता के दर्शन की इच्छा से फिर तप करने लगा बारह हजार वर्षों तक घोर तप किया ।

मुझ पर अनुग्रह करने के लिए भगवान प्रकट हुए-
शङ्खचक्रायुधकरो गदापद्म धरः परः।
घमश्यामल सर्वाङ्गः पीताम्बर धरः परः।। रु•सृ• 7-8

चार भुजा धारी सुंदर नेत्र वाले भगवान को देखकर मैं बड़ा प्रसन्न हुआ और शिव की माया बस अपने पिता को ना जान कर उससे बोला तुम कौन हो ?

विष्णु भगवान ने कहा तुम निर्भय हो जाओ मैं तुम्हारी संपूर्ण कामनाओं को पूर्ण करूंगा, तब उन मुस्कुराते हुए विष्णु जी से ऐसे वचन सुनकर रजोगुण से विरोध मानकर मैंने जनार्दन से कहा कि- निष्पाप क्या तुम नहीं जानते मैं सब के संहार का कारण हूं , मैं साक्षात जगत का कर्ता, प्रकृति का प्रवर्तक आद्य, ब्रह्मा और विष्णु से उत्पन्न होने वाला और विश्व की आत्मा हूं।

हे नारद जब मैंने ऐसा कहा तो रमापति भगवान मुझ पर क्रुद्ध हुए। बोले कि मैं तुम्हारा ईश्वर हूं तुम मेरी शरण में आ जाओ । तब मैंने और हरी ने आपस में युद्ध प्रारंभ कर दिया । मेरे और उनके बीच लिंग प्रकट हुआ तब हम दोनों ने उनको नमस्कार करके युद्ध बंद कर दिया हम दोनों ने उनकी स्तुति की।

तब महेश्वर प्रसन्न होकर बोले मेरी यह आज्ञा है कि तुम और ब्रह्मा चराचर जगत का पालन करो ! तुमने जो मेरी बड़ी भारी स्तुति की थी , उसे मैं सत्य करूंगा।

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