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शिव पुराण कथा हिंदी में-14 story of shiv puran in hindi

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शिव पुराण कथा हिंदी में-14 story of shiv puran in hindi

शिव पुराण कथा हिंदी में-14 story of shiv puran in hindi

 शिव पुराण कथा हिंदी में-14 story of shiv puran in hindi

शिव पुराण कथा हिंदी में-14 story of shiv puran in hindi

तुम्हारे अंग से जो मेरा रूप प्रकट होगा वह रूद्र कहलायेगा और मेरा अंश होने से सामर्थ में वह मेरे सदृश होगें। हे ब्रह्मण आप इस सृष्टि के निर्माता बने और श्रीहरि इसका पालन करने वाले होंगे । मेरे अंग से प्रगट जो रुद्र हैं वे इसका प्रलय करने वाले होंगे ।

यह जो उमा नाम से विख्यात परमेश्वरी प्रकृति देवी हैं इन्हीं की शक्ति भूता वाग्देवी ब्रह्मा जी का सेवन करेंगी। पुनः इन प्रकृति देवी से वहां जो दूसरी शक्ति प्रकट होगी वह लक्ष्मी रूप में भगवान विष्णु का आश्रय लेंगी।

तदनंतर पुनः काली नाम से जो तीसरी शक्ति प्रकट होगीं वह निश्चय ही मेरे अंशभूत रुद्रदेव को प्राप्त होंगी। वे कार्य की सिद्धि के लिए वहां ज्योति रूप से प्रकट होंगी, इस प्रकार मैंने देवी के शुभ स्वरूपा पराशक्तियों को बता दिया ।

त्वं च लक्ष्मीमुपाश्रित्य कार्यं कर्तुमिहार्हसि।
ब्रह्मंस्त्वं च गिरां देवीं प्रकृत्यं शामवाप्य च।। रु•सृ• 9-50
हे हरे आप लक्ष्मी का सहारा लेकर कार्य कीजिए । हे ब्रह्मा आप प्रकृति की अंशभूता वाग्देवी को प्राप्त कर मेरी आज्ञा अनुसार सृष्टि कार्य संचालन करें। मैं अपनी प्रिया की अंशभूता परात्पर काली का आश्रय लेकर रूद्र रूप से प्रलय संबंधी उत्तम कार्य करूंगा ।

हे विष्णु मेरा दर्शन से जो फल प्राप्त होगा वह आपके दर्शन होने पर भी प्राप्त होगा। मैंने आपको आज यह वर दिया है-
ममैव हृदये विष्णुर्विष्णोश्च हृदये ह्यहम्।
मेरे हृदय में विष्णु हैं और विष्णु के हृदय में मैं हूं । हे विष्णु आप मेरी आज्ञा से इन सृष्टि कर्ता पितामह का प्रसन्नता पूर्वक पालन कीजिए, ऐसा करने से आप तीनों लोगों में पूजनीय होंगे । यह रूद्र आपके और ब्रह्मा के सेव्य होंगे क्योंकि त्रैलोक्य के लयकर्ता ये रूद्र शिव के पूर्ण अवतार हैं । पाद्मकल्प में पितामह आपके पुत्र होंगे उस समय आप मुझे देखेंगे और वह ब्रह्मा भी मुझे देखेंगे ।

ब्रह्मा विष्णु और रुद्र की आयु- महादेव जी बोले- हे विष्णु तुम सर्वदा सब लोकों में पूज्य और मान्य होओगे। ब्रह्मा के बनाए लोकों में कभी दुख उत्पन्न होगा उसे तुम ही समाप्त करोगे । अनेकों अवतार धारण करके जीवों का कल्याण करोगे ।
अब तुम तीनों देवताओं के आयुर्बल सुनो-
चतुर्युग सहस्त्राणि ब्रह्मणो दिनमुच्यते।
रात्रिश्च तावती तस्य मानमेतत्क्रमेण ह।। रु•सृ• 10-16

एक हजार चतुर्युग को ब्रह्मा का एक दिन कहा जाता है और उतनी ही उनकी रात्रि होती है । इस प्रकार क्रम से यह ब्रह्मा के एक दिन और एक रात्रि का परिमाण है । और ऐसे दिनों में उनकी आयु सौ वर्ष कही गई है ।
ब्रह्मणो वर्षमात्रेण दिनं वैष्णव मुच्यते।।
ब्रह्मा के एक वर्ष के बराबर विष्णु का एक दिन होता है, वह विष्णु भी अपने सौ वर्ष के प्रमाण तक जीवित रहते हैं ।
वैष्णवेन तु वर्षेण दिनं रौद्रं भवेद् ध्रुवम्।
विष्णु के एक वर्ष के बराबर रुद्र का एक दिन होता है ,भगवान रुद्र भी उस मान के अनुसार नर रूप में सौ वर्ष तक स्थित रहते हैं।

( शिव पूजन )
ऋषियों के पूंछने पर सूत जी महाराज सदाशिव के पूजन की विधि का वर्णन करते हैं और फिर पुष्पों द्वारा आराधना किस प्रकार करना चाहिए यह बतलाते हैं।

रोग से मुक्त होने के लिए पचास कमल पुष्प , कन्या की इच्छा वाला पच्चीस हजार कमल पुष्प, विद्या के लिए घृत से पूजन करें, प्रताप के लिए आक के पुष्प चढ़ावें। जवा के पुष्प से पूजें तो शत्रु का नाश हो और कनेर के पुष्प से सब रोग दूर हों।
खम्पा और केतकी को छोड़कर समस्त पुष्प शिव जी पर चढ़ते हैं। यदि अपने घर में नित्य कलह होता है तो नित्य प्रति शिवजी को जलधारा चढ़ाएं ।

( सृष्टि की उत्पत्ति )
ब्रह्माजी बोले- नारद शब्दादि पंचभूतों द्वारा पंचकरण करके उनके स्थूल, आकाश, वायु, अग्नि, जल और पृथ्वी, पर्वत ,समुद्र, वृक्षादिक और कालादि से युग पर्यन्त कालों को भी मैने रचना की तथा और भी सृष्टि के बहुत से पदार्थों को मैंने रचा ।

परंतु जब इससे भी मुझे संतोष नहीं हुआ तो मैंने अंबा सहित शिव जी का ध्यान करके सृष्टि के अन्य पदार्थों की रचना की और अपने नेत्रों से मरीच को, हृदय से भ्रुगू को, सिर से अंगिरा को , कान से मुनिश्रेष्ठ पुलह को, उदान से पुलस्त्य को, समान से वशिष्ठ को , अपान से कृतु को, कानों से अत्रि को, प्राण से दक्ष को और गोदी से तुम नारद को तथा अपनी छाया से कर्दम मुनि को प्रकट किया।

धर्म को मैंने संकल्प से उत्पन्न किया, इसके बाद मैंने अपना देह दो रूपों में किया। जिसमें स्वयंभू मनु और शतरूपा उत्पन्न हुए। देवी सतरूपा को ग्रहण कर मनु ने विवाह की विधि से मैथुन द्वारा सृष्टि को उत्पन्न किया।

उन्होंने सतरूपा से प्रियव्रत और उत्तानपाद नामक दो पुत्र और तीन कन्याएं उत्पन्न की- आहुति, देवहूति और प्रसूति । मनु ने आकुति का विवाह प्रजापति रुचि के साथ किया। मछली पुत्री देवहुति कर्दम को ब्याह दी और उत्तानपाद की सबसे छोटी बहन प्रसूति प्रजापति दक्ष को दी, उनमें प्रसूति की संतानों से समस्त चराचर जगत व्याप्त है ।
रुचि के द्वारा आकूति के गर्भ से यज्ञ और दक्षिणा नामक स्त्री पुरुष का जोड़ा उत्पन्न हुआ। यज्ञ से दक्षिणा के गर्भ से बारह पुत्र हुए। कर्दम द्वारा देवहूति के गर्भ से बहुत सी पुत्रियाँ उत्पन्न हुईं।

दक्ष से चौबीस कन्यायें उत्पन्न हुयीं। दक्ष ने उनमें से श्रद्धा आदि तेरह कन्याओं का विवाह धर्म के साथ कर दिया। धर्म की पत्नियों के नाम- श्रद्धा, लक्ष्मी, धृति,तुष्टि, पुष्टि, मेधा, क्रिया, बुद्धि, लज्जा, वसु, शांति, सिद्धि और कीर्ति यह सब तेरह हैं।
इनसे छोटी शेष ग्यारह सुंदर नेत्रों वाली कन्याओं का विवाह-
ख्याति का भ्रुगू से, सत्पथा का भव से, संभूति का मरीच से , स्मृति का अंगिरा से, प्रीति का पुलस्त्य से, क्षमा का पुलह से , सन्नति का कृतु से , अनुसूया का अत्रि से, ऊर्जा का वशिष्ट से, स्वाहा का वह्नि से तथा स्वधा का पितरों के साथ हुआ।
कल्पभेदेन दक्षस्य षष्टिः कन्याः प्रकीर्तिताः।
कल्पभेद से दक्ष की साठ कन्यायें बताई गई हैं जिनमें से-
दश धर्माय कायेन्दोर्द्विषट् त्रिणव दत्तवान्।
भूताङ्गिरः कृशाश्वेभ्यो द्वे द्वे तार्क्ष्याय चापराः।। भा-6-6-2

दक्ष प्रजापति ने उनमें से दस कन्याएं धर्म को, तेरह कश्यप को, सत्ताइस चंद्रमा को, दो भूत को, दो अंगिरा को , दो क्रशाष्व को और शेष चार तार्क्ष्यनामधारी कश्यप को ब्याह दी और इनके संतानों से सृष्टि भर गई।

( यज्ञदत्त के पुत्र गुणानिधि की कथा )
सूत जी बोले- हे मुनीश्वरों इसके बाद नारद जी ने पुनः विनय पूर्वक प्रणाम करके पूछां ब्रह्मा जी से-
कदा गतोहि कैलासं शंकरो भक्तवत्सल।
क्व वा सखित्वं तस्यासीत् कुबेरेण महात्मना।। रु•सृ• 17-2
भक्तवत्सल भगवान शंकर कैलाश पर्वत पर कब गए और महात्मा कुबेर के साथ उनकी मैत्री कब हुई ? यह सब मुझे बताइए ?

ब्रह्माजी बोले- हे नारद मैं चंद्रमौली भगवान शंकर के चरित्र का वर्णन करता हूं, वे जिस प्रकार कैलाश पर्वत पर गए और कुबेर कि उनकी मैत्री हुई ।

काम्पिल्य नगर में सोमयाज्ञ करने वाले कुल में उत्पन्न यज्ञ विशारद यज्ञदत्त नामक एक दीक्षित ब्राह्मण था। वह वेद वेदांग का ज्ञाता, प्रबुद्ध , वेदांतादि मे दक्ष, अनेक राजाओं से सम्मानित , परम उदार और यशस्वी था।

वह अग्निहोत्र आदि कर्मों में सदैव संलग्न रहने वाला, वेदाध्ययन परायण , रमणीय अंगों वाला था।
आसीद् गुणनिधिर्नाम दीक्षितस्यास्य वै सुतः।।
उसके एक गुणनिधि नामक पुत्र था जिसकी आयु उस समय आठ वर्ष की थी, उसका यगोपवीत हो चुका था और वह भी बहुत सी विद्यायें जानता था । परंतु पिता के अनजान में वह द्यूत कर्म में प्रवृत्त हो गया।

उसने अपनी माता के पास से बहुत सा धन लेकर जुआरियों को सौंप दिया और उनसे मित्रता कर ली। वह ब्राह्मण के लिए आपेक्षित आचार विचार से रहित, संध्या स्नान आदि कर्मों से पराङ्गमुख, वेद शास्त्र आदि का निंदक, देवताओं और ब्राह्मणों का अपमान करने वाला हुआ।

माता द्वारा प्रेरित करने पर भी वह कभी अपने पिता के पास नहीं जाता था। घर के अन्य कर्मों में व्यस्त वह दीक्षित ब्राह्मण जब जब अपनी दीक्षित पत्नी से पूछता कि हे कल्याणी घर में मुझे पुत्र गुणानिधि नहीं दिखाई देता वह क्या कर रहा है?

तब तब वह यही कहती कि वह इस समय स्नान करके तथा देवताओं की पूजा करके घर से बाहर गया है या अभी तक पढ़ रहा था अब दो-तीन मित्रों के साथ बाहर को गया है। इस प्रकार उस गुण निधि की एक पुत्रा माता सदैव दीक्षित को धोखा देती रही।

वह दीक्षित ब्राह्मण पुत्र के कर्म और आचरण को कुछ भी नहीं जान पाता था। सोलहवें वर्ष में उसने उसके केशांत कर्म आदि सब संस्कार भी कर दिए । इसके पश्चात उस दीक्षित यज्ञदत्त ने गृह सूत्र में कहे गए विधान के अनुसार अपने पुत्र का पाणिग्रहण संस्कार भी कर दिया ।

माता नित्य प्रति पुत्र को यह समझाती रहती थी कि तुम्हारे पिता वैसे तो बड़े महात्मा है किंतु उनका क्रोध भी बड़ा विशाल है । इसलिए तुम अपनी बुरी आदतों को छोड़ दो अन्यथा किसी दिन तुम्हारे पिता इस चरित्र को जानेंगे तो तुमको और मुझको दोनों को मारेंगे ।

परंतु माता के इस प्रकार समझाने पर भी उस पर कोई असर नहीं पड़ता था । एक दिन उसने पिता की अंगूठी चुराकर किसी जुआरी के हाथ में दे दी। दैवयोग से पिता ने उस अंगूठी को ज्वारी के हाथ में देखी तो उससे पूछा?

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