शिव पुराण कथा हिंदी में-25 shiv kathanak hindi me
इस धर्मसंकट में पडकर उसने अपनी स्त्री की अभिलाषा पूर्ण कर
देना, उत्तम समझा, स्त्री के वचन में आकर उसे वैसा पुत्र
देने का वर दिया। फिर स्वयं उसको पूरा करने के लिए अपनी इंद्रियों को वश में रखकर
बज्रांग ने बहुत वर्षों तक कठोर तपस्या की।
तब ब्रह्मा जी उसकी तपस्या से प्रसन्न होकर वर मागने को बोले- तब
उसने आकाश में मेरा दर्शन करके प्रणाम किया और अनेक प्रकार की स्तुति करने लगा।
फिर बोला आप कृपा करके मुझे ऐसा पुत्र दे जो मेरा तथा अपनी माता का हित करने वाला,
तप स्वरूप एवं सामर्थ्यवान हो। तब मैं ब्रह्मा ने तथास्तु कह दिया
और अपने लोक में चला आया।
कुछ समय बाद बज्रांग की पत्नी गर्भवती हुई समय पूर्ण होने पर लंबे
चौड़े शरीर वाला अति पराक्रमी बालक उत्पन्न हुआ । उसके जन्म के समय सारे संसार में
बड़े उपद्रव हुए।
भयंकर गर्जना के साथ बिजली गिरने लगी, भूकंप
आने लगे , पहाड़ ढूंढने लगे, नदी सरोवर
आदि का जल उछलने लगा , बड़े जोरों की आंधी हुंकार का शब्द
करती हुई चल पड़ी, सूर्य को राहु का ग्रास हुआ इत्यादि
अनेकों उपद्रव होने लगे । कश्यप ऋषि ने उसका नाम-
तारकेति विचार्यैव कश्यपो हि महौजसः।
विचारकर तारक रखा। वह तारकासुर अत्यंत शीघ्रता से बज्रांग के घर पलने लगा, थोड़े ही काल में वह पर्वत जैसे आकार वाला होकर माता से तप करने की आज्ञा
मांगने लगा। तब माता ने प्रसन्न होकर उसे आज्ञा दी तो वह तारकासुर मन में देवताओं
को जीतने की अभिलाषा रखकर गुरु जी के कहने के अनुसार मधुबन चला गया।
उसने हाथों को ऊंचा कर लिया और दृष्टि ऊपर की और कर ली, एक पांव पर खड़े होकर एकाग्र मन से सौ वर्ष तक तप करता रहा, सौ वर्ष तक केवल अंगूठे के आधार पर खड़े होकर तप किया-
शतवर्षं जलं प्राश्नन् शतवर्षं च वायुभुक्।
शतवर्षं जले तिष्ठन् शतं च स्थंडिलेऽतपत्।। रु•पा•15-18
सौ वर्ष तक जल पीकर, सौ वर्ष तक वायु पीकर,सौ वर्ष तक जल में खड़ा रहकर उसने तपस्या की और अनेकों दुख सहन कर तप करता
रहा । तब तो उसके शरीर से बड़ा तेज निकलने लगा । उससे तो देवलोक भी जलने लग गए,
यह देखकर देवता घबरा गए।
ब्रह्मा जी बोले- नारद फिर मैं स्वयं वहां गया और तारकासुर से वर
मांगने के लिए कहा- तारकासुर ने प्रणाम किया और बोला हे भगवन मुझे वरदान देते हैं ,तो पहला यह वरदान दें कि आप के रचे हुए संसार में मेरे सामान तेजवान बलवान
कोई न हो।
दूसरा यह कि भगवान शंकर के तेज से जो बालक हो उसी के ही चलाए हुए
शस्त्र से मेरी मृत्यु हो और किसी प्रकार भी मेरी मृत्यु ना हो । ब्रह्मा जी ने
तथास्तु कह दिया और फिर अपने लोक में चले आए ।
तब तो वह तारक अत्यंत प्रसन्न हुआ फिर अपने घर में लौट आया, उसके बाद ब्रह्मा जी की आज्ञा लेकर शुक्राचार्य ने दैत्यों का उसे राजा
बना दिया तब तो तारकासुर की उन्नति होने लगी। तीनों लोकों का राजा बनने की चाह से
सबको दण्ड देता हुआ देवताओं को भी पीड़ित करने लगा ।
इन्द्र ने डरकर ऐरावत हांथी, अपना खजाना,
सफेद रंग के दिव्य घोड़े भी दे दिया, ऋषियों
ने डरके मारे कामधेनु गाय दे दी, इस प्रकार सभी देवताओं ने
अपनी अपनी प्रिय अनेकों वस्तुएं दे दी। समुद्र ने डरकर सारे अमूल्य रत्न दे दिए ।
पृथ्वी बिना जोते बुये अन्न प्रदान करती, सूर्य भी इसके भय
से उतना ही तपने लगा जितने से किसी को कष्ट ना हो। इस प्रकार चंद्रमा, वायु, अग्नि सब इसके अनुकूल हो गए ।
सारे देवता तारकासुर के डर के मारे ब्रह्मा के पास पहुंचकर प्रणाम
किए और अपना दुख सुनाने लगे। देवता बोले- ब्रह्मा जी आपने ही उस तारकासुर को वर
दिया है तभी वह त्रिलोकी को जीतकर हम सबको स्वर्ग से निकाल कर स्वयं इंद्र के
सिंहासन पर बैठ गया है।
अब आपकी शरण में आये हैं हमारे दुखों का नाश करो । ब्रह्मा जी ने कहा
देवताओं मैं तो इसे मार भी नहीं सकता ,क्योंकि मैं इसे
स्वयंवर दे चुका हूं।
विषवृक्षोपि संवर्ध्य स्वयं छेत्तुमसांप्रतम्।
विष वृक्ष को भी बडाकर उसे स्वयं काटना अनुचित है। इस असुर के मारने का सामर्थ
सिर्फ भगवान शंकर के तेज से उत्पन्न पुत्र ही में होगा । अब तुम भगवान रुद्र के
साथ पार्वती का विवाह कराने की चेष्टा करो और मैं स्वयं तारकासुर को समझाने का
प्रयत्न करूंगा।
ऐसा बोलकर देवताओं को विदा किया और स्वयं ब्रह्मा जी तारकासुर के
पास गए समझाने लगे , कि पुत्र मैं तुमको इसलिए वर नहीं दिया
कि तुम अपनी सीमा से भी पार हो जाओ । यह स्वर्ग तो देवताओं का है इस पर तुम्हारा
राज करने का अधिकार नहीं है। तुम शीघ्र स्वर्ग छोड़ दो, पृथ्वी
में राज्य करो नहीं तो दुख पाओगे ।
ऐसा समझा कर ब्रह्मा जी अपने लोक को चले गए । यहां तारकासुर भी
स्वर्ग छोड़कर पृथ्वी में शोणित नगर बसाकर राज्य करने लगा। देवता लोग भी इंद्र के
साथ स्वर्ग में चले गए और स्वर्ग में मिलकर सब देवता सलाह करने लगे कि किस प्रकार
से भगवान रुद्र काम से युक्त होकर पार्वती देवी से विवाह करें ,शिवजी में काम उत्पत्ति के लिए कामदेव को स्मरण किया ।
कामदेव उस समय अपने दल बल के साथ वहां आकर इंद्र को प्रणाम करके
बोला । आपने मुझे किस लिए स्मरण किया है ? इंद्र ने कहा-
सुनो तारक नाम के असुर का संहार के लिए तुमको महादेव को मोहित करना होगा। तभी वे
पार्वती से प्रेम करेंगे और उन दोनों के विवाह से देवताओं का कार्य सिद्ध होगा।
इंद्र के वचन सुनकर कामदेव बोला- हे स्वामिन मैं अवश्य इस कार्य को
करूंगा - शिव माया से मोहित हुआ कामदेव बसंत आदि तथा अपनी रति को लेकर ,उस स्थान पर गया जहां भगवान रुद्र तप कर रहे थे ।
वहां कामदेव अपनी माया फैलाने लगा, अतीव सुंदर
वन-उपवन हो गए । बसंत की बहार खिल पडी़, कोयलें मधुर शब्द
करने लगी-
भ्रमणानां तथा शब्दा विविधा अभवन्मुने।
मनोहराश्च सर्वेषां कामोद्दीप करा अपि।। रु•पा•18-7
भौरों के अनेक प्रकार के शब्द होने लगे ,जो सबके मन को
हर लेने वाले तथा उत्तेजित करने वाले थे। काम साधनों को देख भगवान शंकर आश्चर्य
में पड़ गए और उससे भी कठिन तपस्या करने में तत्पर हो गए ।
सबके हृदय मदन अभिलाषा। लता निहारि नवहिं तरु साखा।
नदी उमगि अंबुधि कहुं धाईं। संगम करहिं तलाव तलाई।।
जहं असि दसा जड़न्ह कै बरनी। को कहि सकइ सचेतन करनी।।
पशु-पक्षी नभ जल थल चारी। भए काम बस समय बिसारी ।।
उस समय जड़ पदार्थों में भी जब काम का संचार होने लगा, तब सचेतन प्राणियों की कथा का किस प्रकार वर्णन किया जाए। इस प्रकार सभी
प्राणियों के लिए काम को उद्दीप्त करने वाले ,उस बसंत ने
अपना अत्यंत दुस्सह प्रभाव उत्पन्न किया।
लेकिन वे सबके सब शिव हृदय तक पहुंचने के लिए कहीं से भी मार्ग नहीं
पा सके। प्रचंड अग्नि के समान तीसरे नेत्र को धारे हुए ध्यान मग्न भगवान रुद्र को
कौन मोहित कर सकता है ।
ब्रह्माजी बोले- नारद जी ठीक उसी समय जगत जननी मां पार्वती भी धूप
दीप आदि लेकर वहां पूजन करने के लिए आई। अपने सखियों को साथ लेकर आयी। उस समय
शिवजी ध्यान से मुक्त हुए थे , तब कामदेव को अवसर मिल गया।
सदाशिव पर बांण चलाकर उन्हें मोहित करने लगा, उस
समय जगत जननी भी दिव्य श्रृंगार करके आई थी । मानो वह भी कामदेव की सहायक हो रही
हैं। कामदेव ने धनुष पर पुष्प बाण संधान करके महादेव पर छोड़ दिया ,तब सदाशिव सकाम हो गए और पार्वती जी के सुंदर शरीर को देखकर आनंदित होने
लगे- सोचने लगे कि मैं इनका आलिंगन कर लूं तो मुझे बहुत सुख प्राप्त होगा ।
इस प्रकार कुछ समय तक विचरते रहे फिर उनको ज्ञान हुआ तो कहने लगे
अरे यह क्या ? मैं निर्विकार होकर भी काम से विकार पाकर
मोहित हो गया। यदि मैं ईश्वर होते हुए भी स्त्रियों के अंगो का स्पर्श कर बैठा तो
साधारण मनुष्यों की क्या गति होगी ? यह विघ्न कैसे आ गया-
केन मे विकृतां चित्तं कृतमत्र कुकर्मिणा।
किस कुकर्मी ने यहां आकर मेरे चित्त में विकार पैदा किया है ? तब उन्होंने अपने बाएं तरफ पुष्प धनुष ताने कामदेव को बैठा हुआ देखा तो,
उसे देखते ही रुद्र क्रोध में आ गए और शिव के तेज को देखकर काम
कांपने लगा और देवताओं का स्मरण किया ,तो सब देवता आकर
महादेव की स्तुति करने लगे। उसी समय-
तृतीयात्तस्य नेत्राद्वै निस्सार ततो महान।
शिव क्रोध में तप्त हुए कि उनके मस्तक का तीसरा नेत्र खुल गया उससे बड़ी तेज
अग्नि निकली और उस अग्नि से कामदेव जलने लगा और जलकर भस्म हो गया ।
तब देवता गण दुखी हो गए और हाहाकार करने लगे। श्री पार्वती जी
सखियों के साथ घर को चली गई। कामदेव की पत्नी रति तो दुख के मारे बेहोश होकर
पृथ्वी पर गिर पड़ी, होश आया तो विचारने लगी अब मैं क्या
करूं? कहां जाऊं ? देवताओं ने मेरे साथ
बहुत बुरा किया, जो मेरे पति को भष्म करा दिया।
उसके करुण विलाप को सुनकर चराचर जीव भी दुखित होने लगे। उसके बाद
इंद्र आदि देवता रति को समझाने लगे- देवी यह संसार दुखों की खान है। ( दुःखालयं
आशास्वतम् ) और सदा रहने वाला भी नहीं है ।
कोऊ ना काहू सुख दुख कर दाता। निज कृत कर्म भोग सब भ्राता।।
कोई भी किसी को सुख दुख देने वाला नहीं हो सकता , सब कोई अपने कर्मों का फल भोग रहा है । रति देवी धैर्य धारण करो । शोक करने
से क्या होगा ? अपने पति की थोड़ी सी भष्म लेकर अपने पास रख
लो ,शिवजी की कृपा से तुम्हारा पति फिर जीवित हो जाएगा।
इस प्रकार धैर्य बधांकर देवता लोग भगवान शंकर के पास गए, उन्हें प्रणाम तथा स्तुति द्वारा प्रसन्न करके बोले- हे प्रभो यह काम कोई
अपने स्वार्थ के लिए यह कार्य नहीं कर रहा था। वह संपूर्ण देवताओं का कार्य था ।
दैत्य तारकासुर संपूर्ण देवताओं को अतीव पीड़ित कर रहा है, उसी
के विनाश के लिए यह उसका कार्य था।