राम कथा हिंदी में लिखी हुई-26 ram katha in hindi
आज प्रातः काल का सूरज जानकी जी के
भाग्य को लेकर के उदय हो रहा है बंधु और माताओं। बड़े-बड़े देश के राजा महाराजा
रंगभूमि के मंच पर पधार चुके हैं। गुरुदेव विश्वामित्र जी के साथ भगवान राघव और
लक्ष्मण जी जब पहुंचे हैं रंगभूमि पर जिसकी जैसी दृष्टि थी भगवान उसको उसी रूप में
दिखलाई पड़ रहे हैं। जो वहां पर दुष्ट राजा थे भगवान उनको भयानक रूप में दिखलाई
पड़ रहे हैं। जो वहां पर दानव मानव का भेष धारण करके बैठे हुए थे भगवान उनको काल
के रूप में दिखाई पड़ रहे हैं। जो वहां पर ज्ञानी जन बैठे हैं भगवान उनको परम तत्व
के रूप में दिखाई पड़ रहे हैं। जो वहां पर भक्ति के रूप में बैठे हुए थे राम जी
उनको भगवान के रूप में दिखलाई पड रहे हैं। महाराज जनक व माता सुनैना को भगवान बेटे
के रूप में दिखलाई पड़ रहे है। जनकपुर वासियों को भगवान रिश्तेदार के रूप में
दिखलाई पड़ रहे हैं।
जिन्ह
कें रही भावना जैसी। प्रभु मूरति तिन्ह देखी तैसी।।
जिनकी जैसी भावना थी प्रभु उनको उसी
रूप में दिखाई पड़े। महत्वपूर्ण भावना होती है जैसी दृष्टि वैसी सृष्टि।
सब मंचन्ह
ते मंचु एक सुंदर बिसद बिसाल।
मुनि समेत दोउ बंधु तहँ बैठारे महिपाल।।244।।
सब मंचों से एक मंच अधिक सुंदर
उज्जवल और विशाल था स्वयं जनक जी ने मुनि सहित दोनों भाइयों को उस पर बैठाया। उस
समय यह दृश्य देखकर के सारे राजा हृदय से दुखी हो गए उत्साहहीन हो गए। जैसे पूर्ण
चंद्रमा के उदय होने पर तारे प्रकाशहीन हो जाते हैं वैसे ही वह सब राजा सोचने लगे
कि हम सबको तो लगता है ऐसे ही बुलाया गया है। सीता जी का विवाह जनक जी ने इन्हीं
के साथ पहले ही तय कर दिया होगा। आपस में बातें करने लगे कि चलो भाई हम सब
अपने-अपने घर को लौट चलते हैं। वहीं पर कुछ ऐसे राजा थे जो अविवेक से अंधे हो रहे
थे बड़े अभिमानी थे। उन्होंने कहा कि अरे धनुष तोड़ने पर भी विवाह होना कठिन है।
हम सहज में ही जानकी को हाथ से नहीं जाने देंगे, चाहे वह काल ही
क्यों ना हो युद्ध में हम उसे भी जीत लेंगे। ऐसे घमंडी अभिमानी राजाओं के वचनों को
सुनकर जो वहां पर धर्मात्मा थे, हरि भक्त थे, बुद्धिमान थे वह मुस्कुराने लगे।
अब इस लीला चरित्र की नायिका, अष्ट
सखियों के साथ प्रवेश। माता जानकी रंगभूमि में पधार रही हैं। सखियां पीछे-पीछे
मधुर गीत गुनगुना रही हैं।
सुकुमार सिया
प्यारी धीरे चलो सुकुमार।
सुकुमार सिया प्यारी धीरे चलो सुकुमार।
चली संग लै सखी सयानी। 2
गावत गीत मनोहर वाणी। 2
सोह नवल तनु सुन्दर सानी जनक जननि अतुलित छभि भारी।।
सुकुमार सिया प्यारी धीरे चलो सुकुमार। 2
रूप और गुणों की खान जगत जननि जानकी
जी की शोभा का वर्णन नहीं हो सकता। उनके लिए काव्य की सब उपमायें तुच्छ लगती हैं।
क्योंकि काव्य की सभी उपमायें इस प्रकृति जगत से ली गई हैं। जबकि जानकी जी भगवान
की स्वरूपाशक्ति,
अप्राकृतिक, चिन्मय स्वरुपा हैं। जब सीता जी
ने रंगभूमि में पैर रखा, तब उनका दिव्य रूप देखकर स्त्री
पुरुष भी मोहित हो गए। देवताओं ने हर्षित होकर नगाड़े बजाए और पुष्प वर्षा कर
अप्सराय गाने लगीं। सीता जी के कर कमलों में जयमाला सुशोभित है। सब राजा चकित होकर
मां जानकी की ओर निहारने लगे। लेकिन माता जानकी हमारे राघव सरकार को देखना चाह रही
हैं।
सीय
चकित चित रामहि चाहा। भए मोहबस सब नरनाहा।।
मुनि समीप देखे दोउ भाई। लगे ललकि लोचन निधि पाई।।
जैसे ही माता जानकी जी ने मुनि के
पास बैठे हुए दोनों भाइयों को देखा और उनकी दृष्टि राघव जी पर पड़ी वह बहुत
प्रसन्न हो गई। वहीं पर दृष्टि ठहर गई मानो चलते हुए पथिक को उसकी मंजिल प्राप्त
हो गई हो। लेकिन गुरुजनों व समाज को देखकर सीता जी सकुचा गई। उनके लाज से राम जी
को हृदय में धारण करके सखियों की ओर निहारने लगीं।
महराज जनक जी ने बंदी जनों को बुलाया
है वह बिरदावली- वंश की कीर्ति गाते हुए चले आए और महाराज जनक का जो प्रण है वह
सुनाने लगे। हे देश देश से आए हुए राजा महाराजाओं व राजकुमारों वीरो सुनिए सुनिए।
राजाओं की भुजाओं का बल चंद्रमा के समान है और यह शिवजी का धनुष राहु के समान है।
यह बहुत कठोर है और भारी है यह सबको विदित है बड़े-बड़े योद्धा रावण और बाणासुर भी
इस धनुष को देखकर उठाना तो दूर रहा छूने तक की हिम्मत नहीं हुई। इस शिवजी के कठोर
धनुष को आज इस राज समाज में जो भी तोड़ेगा तीनों लोकों की विजय के साथ ही उसको जानकी
जी बिना किसी विचार के ब्याह दी जाएगीं।
मानस
में चार निर्जीव वस्तुओं का सजीव की भाँति आचरण
पहला- भगवान शिव
का धनुष । दूसरा- परशुराम द्वारा राम को दिये जाने वाला शार्ङ्ग धनुष । तीसरा
सेतु-बंध और चौथा पुष्पक विमान। इन चारों प्रसंगों को पढ़कर ऐसा लगता है, जैसे
देखने में चारों वस्तुएँ निर्जीव हैं किन्तु इनके द्वारा जो कार्य किये जा रहे हैं,
वे सजीव की भाँति हैं। क्या यह संभव है ? प्रमाण
के रूप में मानस की कुछ पंक्तियाँ। बालकांड के अनुसार दो प्रसंग—
1. शिव का धनुष
सीता जी धनुष से कहती हैं-
निज जड़ता लोगन्ह पर डारी । होहि हरुअ रघुपतिहि
निहारी । ।
(दो. क्रमांक २५३)
हे धनुष ! तुम अपनी जड़ता लोगों पर डालकर श्रीराम ( सुकुमार शरीर के
अनुसार) के लिए हलके हो जाओ । तो क्या धनुष सीता के कहने पर हलका हुआ ?
2. परशुराम का धनुष
देत चापु आपुहिं चलि गयऊ। परसराम मन विसमय
भयऊ । ।
(दो. क्रमांक २८४)
अर्थात् जब परशुराम जी राम को धनुष सौंपने लगे तो वह आप ही उनके पास
चला गया। तब परशुराम जी के मन में बड़ा आश्चर्य हुआ कि यह कैसे हो गया ?
3. सेतु - बंध प्रसंग
समुद्र का सेतु-बंध उपाय बताते हुए यह कहना कि—–
'नाथ नीलनल कपि द्वौ भाई । लरिकाई रिषि
आसिष पाई । ।
तिन्ह के परस किए गिरि भारे । तरिहहिं जलधि प्रताप तुम्हारे । ।
(सुन्दरकांड दो. ६०)
(समुद्र ने कहा — ) हे नाथ! नील और नल दो वानर भाई हैं। उन्होंने
लड़कपन में ऋषि से आशीर्वाद पाया था । उनके स्पर्श से भारी-से-भारी पहाड़ भी आपके
प्रताप से समुद्र पर तैर जायेंगे। मैं भी प्रभु की प्रभुता को हृदय में धारण कर
अपने बल के अनुसार जहाँ तक मुझसे बन पड़ेगा, सहायता करूँगा।
समुद्र द्वारा राम से संवाद कैसे संभव हुआ ?
4. पुष्पक विमान
उतरी कहेउ प्रभु पुष्पकहिं, तुम्ह कुबेर पहिंजाहु ।
प्रेरित राम चलेउ सो, हरषु बिरह अति ताहु । ।
(उत्तरकांड दो. ४(ख))
विमान से उतर कर प्रभु ने पुष्पक विमान से कहा कि अब तुम कुबेर के
पास जाओ। श्रीराम की प्रेरणा से वह अपने स्वामी के पास चला । स्वामी के पास जाने
का उसे हर्ष नहीं था और न राम के बिछुड़ने का दुख ।
इन चारों प्रसंगों को पढ़ते समय एक
बात तो स्पष्ट समझ में आती है कि मानस के ये चारों प्रसंग निर्जीव होकर भी चेतना
शक्ति के सजीव प्रमाण हैं। इस ग्रंथ को कोई भक्तिग्रंथ के रूप में, कोई
धर्म-ग्रंथ के रूप में, कोई विशुद्ध काव्य के रूप में पढ़ते
हैं। किन्तु ऐसे प्रसंगों में कहे गए, मर्म को समझने का
प्रयास बिल्कुल नहीं करते। आइए, इस पर विचार करें। किन्तु इन
प्रसंगों पर विचार करने के पूर्व हमें यह जान लेना आवश्यक है कि मानस पौराणिक
परंपरा का महाकाव्य है । पुराणों में वस्तुतः कथाओं / प्रतीकों के माध्यम से
श्रेष्ठतम ज्ञान का निरूपण किया गया है। आत्म-चेतना का जैसे-जैसे विकास होता जाता
है, वैसे-वैसे पाठक परमात्म-चेतना की ओर अग्रसर होता जाता है
और उसके हृदय में रामकथा के नित्य नवीन क्षितिजों का उद्घाटन होता जाता है। इसी
कारण मानस चिर-नवीन एवं सुन्दर है। वह प्रत्येक श्रेणी के पाठक को तृप्त करती है।
यदि किसी को तृप्ति नहीं हो रही है तो तुलसी का कहना है-
'राम कथा जे सुनत अघाही । रस विशेष जाना तिन्ह नाहीं । ।
क्यों? क्योंकि तुलसी की
मान्यता है कि राम के व्यक्तित्व में ऐसा सामर्थ्य है—
'जो
चेतन कहँ जड़ करइ, जड़हिं करई चैतन्य ।
अरू समर्थ रघुनाथकहिं, भजहिं जीव ते धन्य । ।
(उत्तरकांड दोहा ११९(ख))
चारों प्रकार के ये प्रसंग इसी
सिद्धान्त पर आधारित हैं। मानस बौद्धिक विवेचना से अधिक हृदयानुभूति का विषय है।
यह हृदयानुभूति भी चेतना विकास के अनुरूप होती है ।
यहां जैसे ही महाराज जनक के सेवकों
ने महाराज की प्रतिज्ञा को सुनाया है सारे राजा धनुष को तोड़ने के लिए तैयार हो
गए। सेवकों ने तो बड़ी गूढ़ बात कही थी प्रतिज्ञा में लेकिन वह राजा मूढ़ थे और
मूढ़ को गूढ़ बात समझ में नहीं आती। सेवकों ने पहले ही संकेत कर दिया कि राजाओं का
बल चंद्रमा के समान है और यह शिव धनुष राहु के समान। एक-एक करके सब राजा जाने लगे
अपना बल दिखाने लगे। पूरा पराक्रम लगा दिया लेकिन किसी राजा ने धनुष को उठाना तो
दूर रहा हिला भी नहीं पाए और जब अकेले-अकेले में काम नहीं बना, धनुष
नहीं उठा पाए तो।
भूप
सहस दस एकहि बारा। लगे उठावन टरइ न टारा।।
डगइ न संभु सरासन कैसें। कामी बचन सती मनु जैसें।।
भूप सहस दस एकहि बारा। लगे उठावन टरइ
न टारा।।
डगइ न संभु सरासन कैसें। कामी बचन सती मनु जैसें।।
दस हजार राजा एक ही बार धनुष को
उठाने लगे तो भी वह उनके उठाये नहीं उठा। उठना तो दूर रहा हिला तक नहीं। शिवजी का
वह धनुष कैसे नहीं हिलता जैसे कामी पुरुष के वचनों से सती का मन कभी चलायमान नहीं
होता। सभी राजा राजकुमार उपहास के योग्य हो गए। जैसे वैराग्य के बिना सन्यासी
उपहास के योग्य हो जाता है। कीर्ति, विजय, बड़ी वीरता इन सबको वे धनुष के हाथों हार करके चले गए। लज्जित होकर अपना
सर झुका करके अपने-अपने सिंहासन पर जाकर बैठ गए। यह दृश्य देखकर महाराज जनक जी
व्याकुल हो उठे और ऐसे वचन बोले जो मानो क्रोध में सने हुए थे।
हे देश देश के आए हुए राजाओं
राजकुमारों मैंने जो प्रण ठाना था, उसको सुनकर के देवता और
दैत्य भी यहां मनुष्य का शरीर धारण करके आए परंतु धनुष
को तोड़ना तो दूर रहा वह धनुष कोई तिल भर हिला भी नहीं पाया। मैं जान लिया कि आज
यह पृथ्वी वीरों से खाली हो गई। अब आप सब आशा छोड़कर अपने-अपने घर जाइए विधाता ने
सीता का विवाह लिखा ही नहीं है।
तजहु
आस निज निज गृह जाहू। लिखा न बिधि बैदेहि बिबाहू।।