शिव पुराण कथा हिंदी में-25 shiv puran in sanskrit and hindi
( शिव हिमाचल संवाद )
ब्रह्माजी बोले- नारद जी कुछ समय बाद नंदीश्वर आदि मुख्य मुख्य गणों
को साथ लेकर तप करने की इच्छा से, भगवान हिमाचल प्रदेश में
आए जहां पतित पावनी गंगा ब्रह्मलोक से गिर रही हैं। उसी स्थान को अपने तप के योग्य
एवं सुंदर समझ वहीं एकाग्र चित्त होकर सदाशिव आत्म चिंतन करने लगे।
उनके शुभ आगमन का वृतांत उस समय हिमाचल को मालूम हो गया, तब वह भगवान रुद्र के दर्शन के लिए वहां आए और आकर प्रणाम तथा पूजन किया।
भगवान शंकर हंसते हुए कहने लगे- मैं यहां तप करने आया हूं ।
तव पृष्ठे तपस्तप्तुं रहस्य महमागतः।
यथा न कोपि निकटं समायातु तथा कुरू।। रु•पा•11-26
हे शैलराज मैं आप के शिखर पर एकांत में तपस्या करने के लिए आया हूं ,आप ऐसा प्रबंध कीजिए जिससे कोई भी मेरे निकट ना आ सके । हिमाचल ने कहा-
निर्विघ्नं कुरु देवेश स्वतन्त्र परमं तपः।
हे देवेश आप स्वतंत्र होकर बिना किसी विघ्न के उत्तम तपस्या कीजिए। मैं सब
प्रकार से आपकी सेवा करूंगा । यह कहकर हिमाचल अपने घर को चले गए। कुछ दिनों के बाद
पुष्प फल आदि लाकर हिमाचल भगवान रुद्र के पास पहुंचे , वहां जगत के स्वामी भगवान शंकर को प्रणाम किया और अपनी पुत्री श्री
पार्वती को भगवान के सन्मुख ले जाकर हिमाचल कहने लगे-
भगवंस्तनया मेत्वां सेवितुं चन्द्रशेखरम्।
हे भगवन मेरी पुत्री आप चंद्रशेखर की सेवा करने के लिए बड़ी उत्सुक है । अतः
आप इसकी आराधना की इच्छा से मैं इसको लाया हूं। यह अपने दो सखियों के साथ सदा आप
शंकर की ही सेवा करेगी।
हे नाथ यदि आपका मुझ पर अनुग्रह है तो इसको सेवा के लिए आज्ञा
दीजिए। तब शंकरजी ने पूर्ण चंद्रमा के समान मुख वाली, विकसित
नीलकमल के पत्र के समान आभा वाली, विशाल नेत्रों वाली,
स्त्रियों में श्रेष्ठ उस कन्या को देखा।
तब हिमाचल से कहा यह कन्या चंद्रमा के समान सुंदर रूपवती है,
इसी कारण मैं यहां इसका आना पसंद नहीं करता, क्योंकि
इस प्रकार की मायामई स्त्रियों के आने से तपस्वियों की तपस्या में विघ्न पड़ जाते
हैं ।
यहां पर भगवान शंकर कुयोगियों का लोकाचार दर्शाते हुए यह वचन बोले
हैं ।
लोकाचारं विशेषेण दर्शयन्हि कुयोगिनाम्।
हे भूधर में तपस्वी, योगी तथा सदा माया से निर्लिप्त रहने वाला,
मुझे युवती स्त्री से क्या प्रयोजन है ? तब
हिमाचल इस प्रकार के सदाशिव के वचन सुने तब उनका मन अत्यंत व्याकुल एवं चिंतातुर
हो गया।
( शिव पार्वती संवाद )
भगवान शंकर के वचन सुनकर पार्वती जी बोली- योगिराज आपने जो कुछ
पिताजी से कहा है उसका उत्तर मैं देती हूं। अंतर्यामी आपने एक महान तप करने का
निश्चय किया है, ऐसा तप क्या शक्ति युक्त नहीं है ? यह शक्ति सब कर्मों की प्रकृति मानी गई है ।
इसी से चराचर जगत की रचना, पालन, संहार हुआ करता है। आप थोड़ा सा विचार करें वह प्रकृति क्या है ? और आप कौन हैं ? यदि प्रकृति ना हो तो शरीर तथा
स्वरूप किस प्रकार हो ?
यह सुनकर सदाशिव बोले- पार्वती मैं तप के द्वारा प्रकृति का नाश कर
चुका हूं । अब तत्वरूप में स्थित हूँ। साधु पुरुषों को प्रकृति का संग्रह करना
उचित नहीं । तब इस प्रकार के वचन सुनकर लौकिक व्यवहार के अनुसार हंसकर श्री
पार्वती जी कहने लगी- योगीराज आप किस प्रकार की बातें कर रहे हैं ? थोड़ा विचार कर कहें, यदि आपने प्रकृति का नाश कर
डाला है तो आप किस प्रकार विद्यमान रहेंगे । संसार तो प्रकृति से बंधा हुआ है ।
क्या प्रकृति का तत्व नहीं जान रहे हैं ?
सा चाहं पुरुषोस्मि त्वं सत्यं सत्यं न संशयः।
मैं वह प्रकृति हूं और आप पुरुष हैं ! यह सत्य है सत्य है इसमें संशय नहीं है
। आप मेरी कृपा द्वारा सगुण होकर चेष्टावान हो , नहीं तो किसी
भी कार्य करने में आप समर्थ ना हो सकेंगे । तब इस प्रकार सांख्य शास्त्र के अनुसार
श्री पार्वती जी के वचन सुनकर, शिवजी बोले- हिमाचल कन्या यदि
मैं माया से रहित परमेश्वर हूं, तो आप श्रद्धा पूर्वक मेरी
सेवा करने में तत्पर हो जाओ ।
इतना कहकर सदाशिव हिमाचल से बोले- अब हमें तप करने की इच्छा है और
तुम्हारी कन्या के लिए आज्ञा है कि वह नित्य आकर मेरे दर्शन करे। यह सुन हिमाचल
बहुत प्रसन्न हुए और पार्वती जी को साथ लेकर अपने घर चले गए ।
उसी दिन से पार्वती जी नित्य ही भगवान के दर्शनों के लिए आने लगी,
वहां भगवान शिव का षोडशोपचार पूजन करती, उनके
चरणों के धोवन का नित्य चरणामृत लेती । इस प्रकार पूजन करके घर लौट आतीं । इस
प्रकार बहुत समय बीत गया एक दिन सदाशिव ने इस प्रकार पार्वती जी को अपनी सेवा में
तत्पर देखकर , विचार किया यह काली उमा जब तप करेगी-
तदा च
तां ग्रहीष्यामि गर्वबीजविवर्जिताम्।
उसके
द्वारा अभिमान का बीज तभी नाश होगा और इसका ग्रहण मैं तभी करूंगा । ऐसा विचार कर
भगवान शिव अपने ध्यान में तत्पर हो गए, किंतु उनके मन में
श्री पार्वती जी के लिए एक प्रकार की चिंता ने आकर निवास कर लिया। उसी कारण वे
गिरजा को नित्य ही देखते और पार्वती जी भी बड़ी श्रद्धा से शिव चिंतन ,पूजन एवं दर्शन नित्य करने लगी।
इसी समय महा पराक्रमी तारकासुर से अत्यंत पीड़ित इंद्र आदि देवताओं
तथा मुनियों ने रुद्र के साथ काली का काम भाव योग कराने के लिए, ब्रह्मा जी की आज्ञा से कामदेव को वहां भेजा। कामदेव जाकर वहां अनेकों
प्रकार की माया फैलाने लगा किंतु भगवान रुद्र उससे कभी चलायमान ना हुए प्रत्युत
काम को जलाकर भस्म कर डाला ।
पार्वती का भी अभिमान नष्ट हो गया और नारद जी के उपदेशानुसार घोर
तपस्या करके उन सती ने शिवजी को पति रूप में प्राप्त कर लिया।
( बज्रांग जन्म एवं पुत्र प्राप्ति का वर मांगना )
नारदजी पूछे ब्रह्मन-
कस्तारकासुरो ब्रह्मन्येन देवाः प्रपीडिताः।
कस्य पुत्रस्य वै ब्रूहि तत्कथां च शिवाश्रयाम्।। रु•पा•14-2
वह तारकासुर कौन था जिसने आकर देवताओं को भी पीड़ित कर दिया । काम
को सदाशिव ने कैसे भस्म कर दिया ?
ब्रह्माजी बोले- नारद मरीचि के पुत्र कश्यप जी हुए , जिनकी दक्ष की दिति आदि तेरह कन्या स्त्रियां थी। उन सब में दिति बड़ी थी
उससे हिरण्याक्ष हिरण्यकशिपु दो पुत्र हुए। इन दोनों को भगवान विष्णु ने वाराह तथा
नरसिंह रूप धारण कर मार डाला।
तब पुत्रों के मृत्यु से दुखी होकर दिति कश्यप जी से प्रार्थना की,
उनकी सेवा से उनको गर्भ हुआ। इंद्र ने यह जानकर और उसके गर्भ में
प्रवेश कर बालक के खंड खंड कर दिए। किंतु दिति के व्रत के प्रभाव से गर्भ के बालक
की मृत्यु ना हुई। समय पूरा होने पर उसके गर्भ से उनचास पुत्र उत्पन्न हुए।
ये सब रुद्रगण हुए और शीघ्र ही स्वर्ग में चले गए। उसके बाद दिति
फिर कश्यप जी के पास पहुंची और उन्हें प्रसन्न करने लगी, तब
कश्यप जी बोले- दिति शुद्ध होकर तप करो-
तपः कुरु शुचिर्भूत्वा ब्रह्मणश्चायुतं समाः।
चेद्भविष्यति तत्पूर्वं भविता ते सुतस्तदा।। रु•पा•14-16
ब्रह्मा के दस हजार वर्ष पर्यंत तपस्या करो, तब तुम्हारे
गर्भ से पुनः महा पराक्रमी पुत्र का जन्म हो सकता है। यह सुनकर दिति ने श्रद्धा
पूर्वक तप किया। जब उसका तप पूर्ण हो गया तो पति के द्वारा गर्भवती हुई और इस बार
उसका अत्यंत पराक्रमी बज्रांग नामक पुत्र उत्पन्न हुआ।
उसे माता ने आज्ञा दी कि देवताओं को जीतकर, उनका
राजा बने, दिति ने देखा कि यही पुत्र राजा बन गया और सभी
देवता उसके अधीन हैं। ऐसा देखकर वह बहुत प्रसन्न हुई, एक बार
कश्यप जी को साथ लेकर ब्रह्मा जी बज्रांग के पास गए और देवताओं का बंधन खुलवाए ।
तब शिवभक्त बज्रांग कहने लगा- यह है इंद्र बड़ा स्वार्थी और दुष्ट
है, इसने ही मेरी माता की संतानों को नष्ट किया था तभी मैं
इसे जीतकर राज्य प्राप्त किया हूं । मुझे राज्य से तो कोई प्रलोभन नहीं, न ही मुझे भोग विलास की कामना है और यह देवता लोग अपने किए कर्मों का फल
पा चुके हैं । अब यह अपना राज्य फिर मुझसे ले सकते हैं । यह सब कुछ मैंने आपकी
माता अपनी माता की आज्ञा से किया है ।
ब्रह्मा जी आप मुझे सब का सार रूप तत्व का उपदेश करें जिससे मुझे
सुख की प्राप्ति हो। तब ब्रह्माजी ने सात्विक तत्वों को समझाया और एक रूपवती
स्त्री उत्पन्न करके बज्रांग को दिया, उसके बाद कश्यप और मैं
ब्रह्मा वहां से चले गए।
तभी से बजरंग ने राक्षस स्वभाव त्याग दिया लेकिन उसकी स्त्री के
ह्रदय में सात्विक भाव ना था। उसने काम भावना से बड़े प्रेम से पति की सेवा की। तब
उसकी सेवा से बज्रांग बोला प्राणप्रिये कहो तुम क्या चाहती हो ? यह सुनकर वह स्त्री कहने लगी- पतिदेव यदि आप मुझ पर प्रसन्न हैं तो
त्रिलोकी को जीतने वाला महा पराक्रमी, विष्णु को भी पीड़ित
करने वाला पुत्र दीजिए।
इस प्रकार के वचन सुनकर द्वेष भाव से दूर रहने वाला बज्रांग व्याकुल
होकर मन में विचार करने लगा । देवताओं के साथ बैरभाव करना ठीक नहीं , इधर यह देवताओं के साथ बैरभाव करना चाहती है ।
प्रिया मनोरथश्चैव पूर्णः स्यात् त्रिजगद्भवेत् ।
क्लेशयुङ् नितरांभूयो देवाश्च मुनयस्तथा।। रु•पा•14-33
यदि केवल स्त्री की अभिलाषा पूर्ण कर दी तो सारे संसार के देवता एवं मुनि जनों
को दुख उठाना पड़ेगा और यदि स्त्री की अभिलाषा पूर्ण न हुई तो मैं नरक गामी
होऊंगा।