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राम कथा हिंदी में लिखी हुई34 ram katha lyrics in hindi

bhagwat katha sikhe

राम कथा हिंदी में लिखी हुई34 ram katha lyrics in hindi

राम कथा हिंदी में लिखी हुई34 ram katha lyrics in hindi

 राम कथा हिंदी में लिखी हुई34 ram katha lyrics in hindi

राम कथा हिंदी में लिखी हुई34 ram katha lyrics in hindi

व्यंगतुक गाली देना अमृत समान माना जाता है ।

राजकी बात सुनो सजनी, मंडप में भयो एक कौतुक भारी ।
जैंमन बैठे जभीवर चार, सब नारि चढ़ीं मिथिलेश अटारी ॥
देखत राम को रूप अनूप, विमोह गई सब गावन हारी ।
भूल गईं अवधेश को नाम, अरू देने लगीं मिथिलेश हिं गारी ॥ "

मिथिला की देवियों के मुख से गाली सुन सुनकर महाराज दशरथ समाज सहित हँस रहे हैं, सबने भोजन आचमन किया। इस प्रकार तीन महीने से ऊपर इस भाँति बीत गये, की समय का पता ही नहीं चला। दशरथजी विदा माँगते और जनकजी रोक लेते। बराती भी नहीं ऊबे । वे भी प्रेम बंधन में बँध गये हैं। महाराज दशरथ के प्रसन्नता का ठिकाना नहीं है वह बार-बार विश्वामित्र जी के चरणों में सर झुका करके कहते हैं कि हे महराज यह सब सुख आपके ही कृपा कटाक्ष का प्रसाद है।

दिन उठि बिदा अवधपति मागा। राखहिं जनकु सहित अनुरागा।।
नित नूतन आदरु अधिकाई। दिन प्रति सहस भाँति पहुनाई।।

श्री दशरथ जी प्रतिदिन सुबह उठकर अयोध्या जाने के लिए महाराज जनक जी से विदा मांगते हैं पर जनक जी उन्हें प्रेम से रोक लेते हैं कि महाराज एक दिन और इस तरह करके कयी दिन हो गये। आदर नित्य नया बढ़ता जाता है मिथिला वाशी सभी बरातियों की प्रतिदिन हजारों प्रकार से मेहमानी करते हैं। नगर में नित्य नए आनंद उत्साह रहता है इस प्रकार बहुत दिन बीत गए मानो बाराती स्नेह की रस्सी से बंध गए हैं। माता जानकी की साखियां प्रभु राघव जी के पास जाकर के निवेदन करती हैं कि आप हमारे यहीं मिथिला में रहिए।

ए पहुना एही मिथिले में रहु ना,
जउने सुख बा ससुरारी में,
तउने सुखवा कहूं ना,
ऐ पहुना एही मिथिले में रहु ना ॥

रोज सवेरे उबटन मलके,
इत्तर से नहवाइब,
एक महीना के भीतर,
करिया से गोर बनाइब,
झूठ कहत ना बानी तनिको,
मौका एगो देहु ना,
ऐ पहुना एही मिथिले में रहु ना ॥

नित नवीन मन भावन व्यंजन,
परसब कंचन थारी,
स्वाद भूख बढ़ि जाई,
सुनि सारी सरहज की गारी,
बार-बार हम करब चिरौरी,
औरी कुछ ही लेहू ना,
ऐ पहुना एही मिथिले में रहु ना ॥

कमला विमला दूधमती में,
झिझरी खूब खेलाईब,
सावन में कजरी गा गा के,
झूला रोज झुलाईब,
पवन देव से करब निहोरा,
हउले- हउले बहु ना,
ऐ पहुना एही मिथिले में रहु ना ॥

हमरे निहोरा रघुनंदन से,
माने या ना माने,
पर ससुरारी के नाते,
परताप को आपन जाने,
या मिथिले में रहि जाइयो या,
संग अपने रख लेहु ना,
ऐ पहुना एही मिथिले में रहु ना ॥

ए पहुना एही मिथिले में रहु ना,
जो आनंद विदेह नगर में,
देह नगर में कहुं ना,
ऐ पहुना एही मिथिले में रहु ना ॥

सभी अयोध्यावासी जो बाराती बनकर आए थे वह अपनी अयोध्या को भूल गए अब मिथिला छोड़ने का मन नहीं कर रहा । अब भला जहां इतना प्रेम इतना स्वागत और इतने प्रकार से मेहमान बाजी होगी तो कौन जाना चाहेगा। तब विश्वामित्र जी और सदानंद जी ने जाकर राजा जनक को समझाया है की महाराज-

अवधनाथु चाहत चलन भीतर करहु जनाउ।
भए प्रेमबस सचिव सुनि बिप्र सभासद राउ।।

यद्यपि प्रेम छोड़े नहीं छूटता फिर भी अब दशरथजी को विदाई की आज्ञा दीजिये । राजा जनक ने कहा अच्छी बात है, मंत्रियों को बुलाकर भीतर समाचार पहुँचवाया कि बरात अब जाने वाली है। जहाँ जहाँ बरात आते समय टिकी थी, तहाँ-तहाँ बहुत प्रकार की खाने पीने की सामिग्री भिजवाई गई। बरात चलने की तैयारी में है, माताओं ने जैसे ही सुना कि अब बेटियों को विदा करने की घड़ी आ गई है। सज्जनो वह इतना रोई हैं इतना रोई हैं की वर्णन नहीं किया जा सकता। सभी राजकुमारियों को बार-बार गोद में लेकर माताएँ उन्हें शिक्षा दे रही हैं, अपनी सास और सौतेली सासों के साथ, जिठानी, देवरानी के साथ, देवर के साथ के बर्ताव का उपदेश दिया-

सासु ससुर गुर सेवा करेहु। पति रुख लखि आयसु अनुसरेहु।।
अति सनेह बस सखीं सयानी। नारि धरम सिखवहिं मृदु बानी।।
बहुरि बहुरि भेटहिं महतारीं। कहहिं बिरंचि रचीं कत नारीं।।

पुत्री सदैव अपने सास ससुर की सेवा करना गुरु की सेवा करना पति के भाव को समझ कर उनकी सेवा करना। पुत्री अपनी सासू मां की सदैव आज्ञा का पालन करना उनसे बिना पूछे कहीं पैर ना धरना। तुम सब बहने हो लेकिन फिर भी जो रिश्ता है जेठानी- देवरानी का वह सारा व्यवहार निभाना। जेठ को पिता के समान मानना, देवर को पुत्र के समान। जो महाराज दशरथ जी के प्रिय हैं उनको भी आदर देना। विनय पूर्वक रहना सब की बात सहना, कभी किसी बात का अभिमान ना करना इस प्रकार एक माता अपनी पुत्री को बहू का कर्तव्य समझाती है।

उसी अवसर पर सूर्यकुल के पताका श्रीराम भाइयों सहित जनक जी के महलों में विदा कराने हेतु पहुँचे । वहाँ पर भाइयों सहित उबटन करके नहलाया और अत्यन्त प्रेम से षटरस भोजन कराया, रामजी अवसर पाकर शील स्नेह तथा संकोचमय वाणी बोले-

राउ अवधपुर चहत सिधाए । विदाहोन हम इहाँ पठाए ।
मातु मुदित मन आयसु देहू । बालक जान करब नित नेहू ॥

महाराज अयोध्यापुरी को चलना चाहते हैं उन्होंने हमें विदा होने के लिए यहां भेजा है। हे माता प्रसन्न मन से आज्ञा दीजिए और हमें अपने बालक जानकार सदा स्नेह बनाए रखिएगा। बचन सुनते ही रनिवास बिलखने लगा, अत्यन्त प्यारी होने से जानकी के हृदय से लगकर माता सुनयना रामसे प्रेमभरी वाणी बोलीं-

यह मैथिली ज्योति जिया की मेरी, हे कुमार हियासों भुलाइयो ना।

मिथिलापति भौंन दिया सी रही, मतियाको अबोध खिजाइयो ना ||

सखियन के साथहु बिंदुलला, अँखि यानते ओट पठाइयो ना |

रघुनंदन प्राणपियारे कबौ, अनजान सिया पै रिसाइयो ना ॥

रामजी ने माता कहा था इसलिये तात कहती हैं- "तुमते कछुन छिपी करुना निधि तुम हो अन्तर्यामी ॥” अन्तर्यामी कहती हैं, सुजान कहती हैं। इसे निजदासी अनन्य गति समझ कर मानना । ऐसा कहकर रानी ने चरण पकड़ लिये मानो प्रेम के दलदल में वाणी समा गई, स्नेह से सनी हुई श्रेष्ठ वाणी सुनकर बहुत विधि से श्रीरामजी ने सास का सम्मान किया और वधुओं सहित जनवासे को चल दिये। विवाह महोत्सव पर जो गाजे बाजे वाले थे वह भी बाजे पर बड़ा करुण स्वर छेड़ दिए। धीरे-धीरे यह सूचना पूरे जनकपुर में फैल गई की जानकी जी की विदाई का समय हो गया सब जनक जी के भवन की ओर दौड़े हैं सबका मुंह लटक गया सबके नेत्र मानव सावन भादो हो गए साधारण लोग की बात छोड़िए जो बड़े धीरे-धीरे थे ज्ञानी थे तपस्वी थे जो विदेश राज कहे जाते हैं जो ब्रह्म में रमने वाले संसार में जिनका तनिक भी आकर्षक नहीं था जाने की जी को जब विदा होते हुए उन्होंने देखा है फूट-फूट कर वह रोने लगे।

सीय बिलोकी धीरता भागी। रहे कहावत परम बिरागी।।
लीन्हि रायँ उर लाइ जानकी। मिटी महामरजाद ग्यान की।।

यद्यपि ज्ञानियों के चित्त दृढ़ हैं तथापि देवी भगवती महामाया बलात से उनको खींचकर मोह की प्राप्ति करा देती हैं- जनकजी ने जानकी को हृदय से लगा लिया। जनक जी के नेत्रों से भी जानकी को विदा करते हुए आंसुओं की अविरल धारा चल पड़ी।

स्त्री पुरुष और सखियों सहित सारा रनिवास जानकी के विछोह से दुखी है। मानो जनकपुर में करुणा और विरह ने डेरा डाल दिया है। जानकी जी ने जिन तोता और मैना को पाल पोसकर बड़ा किया था और सोने के पिंजरे में रखकर पढ़ाया था वह व्याकुल होकर कह रहे हैं वैदेही कहां है? वैदेही कहां है? उनके ऐसे वचनों को सुनकर धीरज किसको नहीं त्याग देगा। जब पक्षी और पशु तक इस तरह विकल हो गए तब मनुष्यों की दशा कैसे कही जा सकती है।

सभी बुद्धिमान मंत्री महाराज जनक को समझाते हैं तब महराज जनक पुत्री को हृदय से लगाकर सुंदर सजी हुई पालकिया मंगवाते हैं और पुत्रियों को बिठाये हैं। सीता जी के चलते समय जनकपुरवासी व्याकुल हो गए। ब्राह्मण और मंत्रियों सहित के समाज सहित राजा जनक जी बारात को बिदा देने के लिए साथ चल दिए, महाराज दशरथ ने बहुत दान किया है। बार-बार कौशलपति जनक जी से लौटने की कह रहे हैं परंतु वह प्रेम बस लौटना नहीं चाहते। जनक जी ने अयोध्या नरेश जी से विनती किया कि महाराज आपने मुझे बहुत बडाई दी अपनी कृपा मुझ पर सदा बनाए रखिएगा। जनक जी ने मुनि मंडली को सिर नवाया सभी से आशीर्वाद पाया फिर वह वहां से राघव जी के पास आते हैं। यहां पर जनक जी अपने दामाद रूप से नहीं अपितु सर्वात्मा जगदीश रूप से प्रभु को निवेदन किये हैं।

जोरि पंकरुह पानि सुहाए। बोले बचन प्रेम जनु जाए।।
राम करौं केहिं भांति प्रसंसा। मुनि महेस मन मानस हंसा।।

हाथ जोड़कर महाराज जनक कहने लगे हे राम जी मैं आपकी किस प्रकार प्रशंसा करूं? आप मुनियों और महादेव जी के मन रूपी मानसरोवर के हंस हैं। योगी लोग जिनके लिए क्रोध मोह ममता और मद को त्याग कर योग साधना करते हैं आप वहीं परम ब्रह्म हैं। आपकी महिमा वेद नीति कहकर वर्णन करता है। हे नाथ आप की कथा जितनी भी कहीं जाए उतनी ही थोड़ी है। बस मेरा आपके चरणों में यही प्रार्थना और निवेदन है।

बार बार मागउँ कर जोरें। मनु परिहरै चरन जनि भोरें।।

मैं बार-बार हाथ जोड़कर यह मांगता हूं कि मेरा मन भूल कर भी आपके चरणों को ना छोड़े। जनक जी के ऐसे वचनों को सुनकर राम जी बहुत प्रसन्न हुए और सुंदर विनती करके पिता दशरथ जी और गुरु विश्वामित्र व वशिष्ठ के समान हैं जनक जी ससुर जी का सम्मान किया। उसके बाद सभी बाराती अयोध्यावासी अयोध्या को प्रस्थान करते हैं। 

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