F राम कथा हिंदी में लिखी हुई-35 ram ji ki katha hindi mein - bhagwat kathanak
राम कथा हिंदी में लिखी हुई-35 ram ji ki katha hindi mein

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राम कथा हिंदी में लिखी हुई-35 ram ji ki katha hindi mein

राम कथा हिंदी में लिखी हुई-35 ram ji ki katha hindi mein

 राम कथा हिंदी में लिखी हुई-35 ram ji ki katha hindi mein

राम कथा हिंदी में लिखी हुई-35 ram ji ki katha hindi mein

बरात का आना सुन पुरजन ऐसे प्रसन्न हुए कि उन लोगों का रोम रोम पुलकित होने लगा, अवध में राजगृह और पुरवासियों के घर, बाजार गली सब पूर्व से ही सजी हुई थीं, राजग्रह में कोलाहल हो रहा है, कौशल्यादि रानियाँ प्रेम के वश होकर शरीर की सुधि भूली हुई हैं। ब्राह्मण को बुला अनेक प्रकार के दान दिये।

दिये दान विप्रन विपुल"

और सभी परिछन का सामन विविध प्रकार से सजाने लगीं। मंगल द्रव्यों से सोने के थालों को भरकर माताएँ हाथ में लेकर परिछन करने चलीं, शरीर में पुलकावली छा गई देवता दुदुंभी बजाकर पुष्प वृष्टि कर रहे हैं, देववधू प्रसन्न होकर सुमंगल गान करती हुई नृत्य कर रही हैं।

भूपति भवन कोलाहलु होई। जाइ न बरनि समउ सुखु सोई।।
कौसल्यादि राम महतारीं। प्रेम बिबस तन दसा बिसारीं।।

इस भाँति सबको सुख देते हुए चारों राजकुमार राजद्वार पर आये हैं, माताएँ मुदित होकर वधुओं के साथ कुमारों का परिछन करती हैं। बार-बार आरती करती हैं, प्रेम और प्रमोद को कौन कह सकता है, चारों बेटों की बहुओं सहित देख माताएँ परमानंद से मग्न हैं बार-बार सीता और रामजी की छवि देखकर संसार में अपने जीवन को सफल मान रही हैं। धूप, दीप, नैवेद्य द्वारा मंगल निधि वरों-दुलहिनों का पूजन किया, पंखा चल रहे हैं चँवर दुर रहे हैं अनेक वस्तुएँ निछावर हो रही हैं, आनंद से भरी मातायें शोभित हो रही हैं जैसे योगी को परम तत्व की प्राप्ति हो गई हो और जन्म के रोगी को अमृत मिल गया हो। जन्म के दरिद्र को पारस मिल गया हो, अंधे को नेत्र मिल गये हों, गूँगे के मुख में सरस्वती आ गई हो, समर में शूर को जय लाभ हुआ हो।

ऐहि सुख ते सत कोटिगुन, पावहिं मातु अनंद ।

भाइन्ह सहित विआहि घर, आये रघुकुल चंद ॥

माताएँ लोक रीति कर रही हैं वर-दुलहिन सकुचाते हैं इस पर मोद - विनोद बहुत बढ़ रहा है, रामजी मन में मुस्कराते हैं। सभी माताओं ने मुँह दिखाई में अनेक प्रकार के उपहार दिये, कौशल्या ने सीताजी सेकहा है पुत्रि जिस राम को मैंने बड़ी तपस्या से, आराधना से, यज्ञ यागादि से तथा बड़ी कठिनाई से पाया है उस 'राम' को ही मैं तुझे समर्पित कर रही हूँ, मेरे रामरत्न को सँभालकर रखना। कैकई ने कहा हे जनक नन्दिनी ! मैं सोचती थी कि मेरे चारों पुत्र बहुत सुंदर हैं, इनके योग्य बहुएँ मिलेंगी या नहीं? परन्तु मेरा सौभाग्य है कि मेरी चारों बहुएँ बहुत सुंदर हैं परंतु जिस प्रकार मेरा राम सर्वाधिक सुन्दर है उसी प्रकार तुम भी सर्वाधिक सुन्दरी हो, हे मैथिल, तुम तो मेरे राम से भी अधिक सुन्दर हो, मैंने अपने राम के लिये एक दिव्य भवन का निर्माण कराया है वह अपूर्व महल है, सब प्रकार की साज-सजाओं से परिपूर्ण है, हे सीते! मैं तुम्हारी मुख दिखाई में वह अनौखा 'कनक भवन' तुम्हें समर्पण कर रही हूँ उसमें दोनों प्रिया- प्रियतम विहार करो।

सुमित्रा ने गद्गद् कंठ से कहा- हे राम वल्लभे! तुम्हारे जैसा सौंदर्यपूर्ण मुख मैंने अद्यावधि नहीं देखा है इस मुख सन्दर्शन में श्री कौशल्याजी ने अपना धर्मात्मा पुत्र तुम्हें दे दिया, श्री कैकई जी ने अपर्वृ कनक भवन दे दिया। हे लाड़िली मैं तो अकिंचन हूँ, तुम्हारे मुख के अनुरूप देने के लिये मेरे पास कुछ नहीं है, सोचती हूँ कि मैं तुम्हें क्या दूँ? हे पुत्री ! बारह मास गर्भ में रखकर जिन बालकों को मैंने जन्म दिया है उन्हें मैं श्रीराम और भरत के चरणों में मैंने पहले ही समर्पित कर दिया है, वे सेवक तो श्रीराम के हैं लेकिन उनकी माँ मैं ही हूँ। हे जनकनन्दिनी! आज मैं लक्ष्मण पर से मातृत्व का अधिकार समाप्त करती हूँ, लक्ष्मणऐसे सुयोग्य पुत्र को बलिदानी पुत्र को, हे परम सुशीले आजु तुम्हारी गोद में डाल समर्पण कर रही हूँ, आज से इसकी माता तुम्हीं हो, माता सुमित्रा ने वनवास प्रसंग में भी ऐसा ही लक्ष्मण से कहा है-

तात तुम्हारि मातु वैदेही ।”

चारों माताएँ सीता की शोभा का वर्णन करने लगी। देवता और पितरों की पूजा भली भाँति से की गई. अन्तर्ध्यान रहकर सभी देवता आशीर्वाद देते हैं। आज्ञा पाकर और रामजी को हृदय में रखकर प्रसन्न हो सब अपने-अपने घर गये। पुर नर नारि सभी को परिरावन मिला, घर- घर बँधाए बजने लगे। याचक जो-जो माँगते हैं राजा वही वही वस्तु दे रहे हैं सब सेवकों और नाना प्रकार के बाजे बजाने वालों को दान और सम्मान से संतुष्ट कर दिया।

श्रीरामजी को देखकर और राजा की आज्ञा पाकर सब अपने-अपने घर प्रणाम करके चले, प्रेम, प्रमोद, विनोद बड़ाई, समय, समाज की मनोहरता को शेष, वेद, ब्रह्मा, महेश और गणेश भी नहीं कह सकते। राजा दशरथ जी ने रानियों को बुलाकर कोमल वचनों से कहा- बहु अभी बच्ची हैं, पराये घर आई हैं, इन्हें इस भाँति रखना जिस भाँति पलक नयन की रक्षा करता है।

बिस्वामित्रु चलन नित चहहीं। राम सप्रेम बिनय बस रहहीं।।

विश्वामित्र जी नित्य ही जाना चाहते हैं पर रामजी के स्नेह और विनय के वश होकर रह जाते हैं, बंधु माताओं कौन छोड़कर के जाना चाहेगा भगवान को? श्री राम जी को छोड़कर कौन जाना चाहेगा इस संसार में। इसी कारण विश्वामित्र जी महाराज प्रयास प्रतिदिन करते हैं लेकिन जा नहीं पाते हैं। लेकिन महाराज विश्वामित्र जी ने आज निश्चय किया कि अब समय आ गया है यहां से चला जाए क्योंकि महाराज दशरथ का नित्य प्रेम और अनुराग बढ़ता ही जा रहा है वह कभी राजी नहीं होंगे हमें भेजने को। राजा से आज्ञा माँगी-

"माँगत विदा राउ अनुरागे । सुतन्ह समेत ठाड़भये आगे ॥

देखिए यह भारत और सनातन संस्कृति की विशेषता व अलौकिकता का दर्शन करिए। किसी साधु की विदाई में किसी संत की विदाई में पूरा राज परिवार हाथ जोड़कर के खड़ा है। महाराज दशरथ भी खड़े हैं पूरा राज परिवार दुखी है। महाराज विश्वामित्र जी के जाने को देखकर प्रभु राघव तो गुरु विश्वामित्र जी के चरणों में दंडवत प्रणाम करके रोने लगे नेत्रों से आंसुओं की धारा चल पड़ी कहने लगे गुरुदेव अपने विचार कर लिया है कि जाना है उसमें किसी का वस चलेगा नहीं, बस अपने इस बालक पर कृपा बनाए रखिएगा। महाराज दशरथ कहने लगे की गुरुदेव इस अयोध्या को भूलिएगा नहीं, इस परिवार पर अपनी कृपा की वर्षा करते रहिएगा, यह जो कुछ भी है यह मेरा नहीं आपका ही है।

नाथ सकल सम्पदा तुम्हारी । मैं सेवक समेत सुत नारी ॥
करब सदा लरिकनः पर छोहू। दरसन देत रहब मुनि मोहू।।
दीन्ह असीस बिप्र बहु भाँती। चले न प्रीति रीति कहि जाती।।

जो कुछ है सब आपका है और यही भाव जब रहता है सज्जनों तो जीवन में अहंकार प्रवेश नहीं करता और जब यह भाव मन में आ जाता है कि यह मेरा है, यह मैंने अर्जित किया है तभी अहंकार जीवन के अंदर मनुष्य के अंदर प्रवेश कर जाता है और उसका विनाश कर देता है। यहाँ राजा मन, बचन, कर्म की भक्ति दिखलाते हैं "माँगत विदा राउ अनुरागे" यह मन की भक्ति, क्योंकि अनुराग मन में होता है "नाथ सकल संपदा तुम्हारी" यह बचन की भक्ति क्योंकि बचन से कहा है "मैं सेवक समेत सुतनारी" और "परेउ चरन मुख आवनबानी" यह तन की भक्ति है, ब्राह्मण देवता विश्वामित्र आशीर्वाद देकर चले गये। रामजी प्रेम के साथ सब भाइयों को संग लिये हुए पहुँचाने चले और मुनि की आज्ञा पाकर लौट आए, प्रीति की रीति कही नहीं जाती। सज्जनों अभी हम यह पावन रामचरितमानस ग्रंथ का बालकांड के सुंदर चरित्र कथा को श्रवण किया। जो इस चरित्र को कहता है व सुनता है उसके लिए बाबा जी लिखते हैं।

निज गिरा पावनि करन कारन राम जसु तुलसी कह्यो।
रघुबीर चरित अपार बारिधि पारु कबि कौनें लह्यो।।
उपबीत ब्याह उछाह मंगल सुनि जे सादर गावहीं।
बैदेहि राम प्रसाद ते जन सर्बदा सुखु पावहीं।।

जो इस कथा को गाएगा व सुनेगा जो भगवान के सुंदर चरित्र यज्ञोपवीत व विवाह आदि का उत्सव का लाभ लेगा वह श्री सीताराम जी भगवान की कृपा को प्राप्त करेगा और उसके जीवन में सुख संपदा का आगमन होगा।

बोलिए श्री सीताराम चंद्र भगवान की जय

पद-
अरे मन रमिजा रे राघव जी के चरना ।
राघव जीके चरना अरे तू माधव जी के चरना
अरे मन रमि जा रे राघव जी के चरना ॥
जिन्ह चरणनते निकसी गंगा। शीष धरी शिव बने अभंगा ॥
वहीं रति थमि जा रे - राघव जी के चरना ॥ १ ॥
शिव अज पूज्य चरण रघुराई | नर तन पाइके क्यों बिसराई ॥
प्रीति उन्हीं में जमि जा रे - राघव जी के चरना ॥ २ ॥
उन चरणन की सीता दासी । राये लक्ष्मण उर अविनाशी ।।
तभी उनमें परिजा रे - राघव जी के चरना ॥ ३ ॥
रामा-श्याम चरण सुखदाई | जिनने गहे उननैं ई गति पाई ॥
'प्रिय' शरण में गिरि जा रे - राघव जी के चरना,
अरे मन रमिजा रे राघव जी के चरना ॥

॥ बालकाण्ड समाप्त ॥

सज्जनों हम प्रभु का भजन छोड़कर के जिस माया धन को इकट्ठा करने में पूरा जीवन लगा देते हैं याद रखिएगा यह है एक कटु सत्य है की मरने के बाद मनुष्य के साथ एक कौड़ी भी नहीं जाती; परन्तु मोहवश धर्म, भक्ति तथा परमार्थ की कमाई नहीं कर पाता । मनुष्यो ! अन्त में तुम्हारा कोई साथी नहीं होगा। अपनी अच्छी कमाई कर लो, नहीं तो अन्त में धोखा खाओगे ।

(धर्म से चूका धोखा खाता है) दृष्टान्त –

एक सेठ देशाटन करने चला । उसने मुनीम से कहा- चांदी, सोने, हीरे, रत्नादि अधिक रूप में ले लो, जिससे परदेश में कष्ट न हो । मुनीम बोला-चांदी, सोने, हीरादि यात्रा में बोझ हो जायेंगे, अत: कई हजार के नोट ले लिये जायं। इस बात को सेठ ने स्वीकार कर लिया। वे दोनों अपने देश से चलकर कई देश लांघते - लांघते एक टापू में जा पहुंचे।

सेठ ने मुनीम से कहा- जाकर बाजार से खाने-पीने की वस्तुएं ले आओ और रहने के लिए किराये पर मकान ठीक करते आओ । मुनीम बाजार में गया और दुकानदार से भोजन का सामान मांगा। मुनीम के कथनानुसार दुकानदार ने वस्तुएं दे दीं । दाम चुकाते समय मुनीम ने एक हजार रुपये का नोट निकाला। दुकानदार बोला- अरे भाई ! हम कागज लेकर क्या करेंगे, यह तो हमारे राज्य में चलता ही नहीं। यदि आपको वस्तुएं लेनी हैं तो सोने-चांदी आदि के सिक्के लाओ तो काम चल सकता है; नहीं तो हमारी वस्तुएं रख दो ।

बेचारे मुनीम जी करते ही क्या, इधरउधर देखकर सामान रखना पड़ा। वहां से मुनीम जी रहने के लिए किराये पर मकान ठीक करने के लिए गये, तो वही उत्तर वहां भी मिला। मुनीम जी दुखी होकर सेठ से आकर सारा समाचार कह सुनाये। सेठ जी बड़ी चिंता में पड़ गये। वहां से डाक-तार आदि द्वारा घर से रुपये मंगाने की सुविधा भी नहीं थी । उस देश के राजा का यह कानून था, कि जो हमारे राज्य में आ जाय वह तीन वर्ष तक अपने देश नहीं जा सकता और न वह अपने घर से कोई सम्बन्ध ही रख सकता है । इसलिए सेठ जी घूमकर अपने घर भी तीन वर्ष तक नहीं जा सकते थे । अब क्या करें, सेठ - मुनीम दोनों अन्य जगह नौकरी न पाने से एक कपड़े धुलने की दुकान पर कपडा धुलने का काम कर अपना जीवन बिताने लगे। एक दिन कपड़ा धुलते-धुलते सेठ जी गाते हैं-

अहो ! बहुत मैंने धन जाया, हीरे मोहरे महल भरे ।
आज काम देते नहिं कोई, हाय दैव ! यह दुःख भिरे ॥

सिद्धांत - सेठ जीव है, मुनीम मन है । जीव सेठ मन- मुनीम द्वारा भटकाया जाकर कागज के नोट रूप गृह, धन, कुल, कुटुम्ब, शरीर, विद्यादि मायावी वस्तुओं को अपना खास धन मानकर इसी के भरोसे रहता है। किन्तु जीव जब मनुष्य तन त्यागकर दूसरे जन्म में जाता है, तब यहां के घर - धनादि रूप नोट वहां काम नहीं देते; धर्म, पुण्य, भक्ति, परोपकार रूप चांदी, सोने, हीरे ही काम देते हैं । किन्तु धर्म रूप धन तो उसने अपने पास रखा ही नहीं, तब उसे परलोक में कैसे सुख प्राप्त हो ! वासना रूपी राजा का यह कानून है कि तीन खानियों के कर्मफल भोगे बिना जीव अपने देश रूप मनुष्य तन में आ भी नहीं सकता । अतः जीव- सेठ मन- मुनीम के साथ कर्मानुसार कपडा धुलना रूप तीन खानियों में नाना देहें बनाता है और रात-दिन दुख भोगता है।यहां के तोषक- तकिये, विहार, नाना धन-सम्पत्ति एवं पंच विषयों के सुख वहां काम नहीं देते। इसीलिए समय रहते प्रभु श्री सीताराम चंद्र भगवान की भक्ति भजन पर खुद को लगा लेना ही बुद्धिमानी है।

श्री रामचरितमानस -द्वितीय सोपान

 राम कथा हिंदी में लिखी हुई-35 ram ji ki katha hindi mein


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