F राम कथा हिंदी में लिखी हुई-37 ram ji ki katha in hindi - bhagwat kathanak
राम कथा हिंदी में लिखी हुई-37 ram ji ki katha in hindi

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राम कथा हिंदी में लिखी हुई-37 ram ji ki katha in hindi

राम कथा हिंदी में लिखी हुई-37 ram ji ki katha in hindi

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राम कथा हिंदी में लिखी हुई-37 ram ji ki katha in hindi

दुख मे सुमिरन सब करै, सुख मे करे ना कोय।
जो सुख में सुमिरन करै, दुख काहे को होय।।

जीवन की सच्चाई यही है कि हम सब भगवान को याद भी करते हैं तो केवल दुख में, अगर हम सुख में भगवान को भूलें नहीं तो हमारे जीवन में दुख कभी आए ही नहीं। सज्जनो यह संसार केवल सुख का साथी है दुख का साथी तो केवल राघव जी हैं। जब विपत्ति पड़ती है तो केवल साथ देने वाला परमात्मा ही होता है इसीलिए कहते हैं ना।

सुख के सब साथी, दुःख में ना कोई।
मेरे राम, मेरे राम, तेरा नाम एक सांचा दूजा ना कोई॥

जीवन आनी जानी छाया,
जूठी माया, झूठी काया।
फिर काहे को सारी उमरिया,
पाप को गठरी ढोई॥

ना कुछ तेरा, ना कुछ मेरा,
यह जग योगी वाला फेरा।
राजा हो या रंक सभी का,
अंत एक सा होई॥

बाहर की तो माटी फांके,
मन के भीतर क्यूँ ना झांके।
उजले तन पर मान किया,
और मन की मैल ना धोई॥

और यह अनुभव वाली बात है आप सब ने अनुभव किया होगा कि जब बड़ी विपत्ति बड़ा हादसा या अनहोनी होती है तो संसार याद नहीं आता संसार वाले याद नहीं आते तब तो केवल भगवान याद आते हैं। बस अनायास ही परमात्मा का नाम आता है हे राम, है प्रभु। तो कहने का भाव यह है कि जिसको दुख में याद करते हो उसको सुख में भी याद करो।

बंधु माताओं इधर कुछ समय बाद सभी अयोध्यावासियों, पुरजन, परिजन के हृदय में, मंत्रियों के हृदय में तथा महारानियों के हृदय में रामजी को युवराज पद मिले। यही अभिलाषा है कि महाराज रामजी को युवराज पद देकर स्वयं राजा बने रहें क्योंकि उनको महाराज का वियोग भी सह्य नहीं है अतः राज्यभार देकर स्वयं दृष्टा रहें ।

एक समय सब सहित समाजा। राजसभाँ रघुराजु बिराजा।।

महाराज दशरथ आए हैं राज्यसभा में पूरी सभा खड़ी होकर महाराज की जय जयकार करने लगी। महाराज की जय हो, अन्नदाता की जय हो, प्रजापालक की जय हो। जय हो। इतनी जयकार हुई किसी ने गोस्वामी जी से पूछा की इतनी जय जयकार करवा रहे हैं कोई विशेष बात है क्या ? तो बाबा तुलसी ने प्रति उत्तर में कहा देखिए इनकी जितनी भी जय जयकार हो उतनी कम है। यह कोई सामान्य राजा नहीं है जिनके घर में परम ब्रह्म बालक बनाकर के आया है, जिनके घर में भरत, लक्ष्मण, शत्रुघ्न जैसे पुत्र हैं। जिनके घर में वैदेही जानकी जैसी जगदंबा बहू बनकर के आई है वह कोई सामान्य राजा हैं? इनकी जितनी प्रशंसा की जाए उतनी कम है।

जो कछु कहिज थोर सबु तासू।।

सभी प्रजाजन महाराज की जय जयकार कर रहे हैं। अच्छा यह जय जयकार भी बड़ी विचित्र अवस्था होती है अगर इसमें मनुष्य सावधान ना रहे तो वह जय जयकार को सुनकर फूल जाता है अभियान से भर जाता है फिर अपने सिवा किसी और को कुछ समझता ही नहीं है और यही फिर जय जयकार उसको गड्ढे में ले जाकर पटक देती है। लेकिन ध्यान देने वाली बात यह है सज्जनों महाराज दशरथ कि यहां पर इतनी जय जयकार हुई महाराज दशरथ उसी प्रप्रका सहज हैं सामान्य हैं। यहां से शिक्षा मिलती है कि जब भी जय जयकार हो हमको सावधान रहना चाहिए। महाराज दशरथ फूले नहीं तो उन्होंने क्या किया?

रायँ सुभायँ मुकुरु कर लीन्हा। बदनु बिलोकि मुकुट सम कीन्हा।।

महाराज दशरथ का स्वभाव था हाथ में दर्पण लेकर के देखने का। स्वभाव यानी आदत तीन चीज होती हैं जीवन में- गुण, दोष, स्वभाव। गुण दोष तो परिवर्तित होते रहते हैं कभी किसी में गुण आते हैं कभी दोष लेकिन यह स्वभाव जो तीसरा है यह जिसका जैसा हो गया वैसा ही बना रहता है। श्रीमद्भागवत महापुराण की कथा में जब भगवान ने कालिया नाग के मान का मर्दन किया तो वह प्रभु श्री कृष्ण की कृपा से जीवन धन को प्राप्त करने के बाद उनसे हाथ जोड़कर के यही कहा कि हे प्रभु-स्वभावो दुष्त्यजो नाथ।
हे प्रभो मुझे आपने ही ऐसा बनाया है क्रोधी स्वभाव का, व्यक्ति को सब कुछ त्याग करना सरल है लेकिन स्वभाव का त्यागना कठिन है। इसलिए हमको अपना स्वभाव आदत एकदम बढ़िया रखना चाहिए तो हम एक अच्छे व्यक्तित्व के रूप में समझे जाएंगे।

आदत बुरी सुधार लो बस हो गया भजन

तो महाराज दशरथ ने स्वभाव बस हाथ में दर्पण लिया और देखने लगे।
किसी सचिव ने कहा महाराज यह सभा में आप दर्पण देख रहे हैं? महाराज दशरथ ने कहा देखिए मैं भरी सभा में दर्पण देख रहा हूं इसलिए सबको अटपटा लग रहा है लेकिन दर्पण सबको देखना चाहिए। प्रसंग के मर्म और सूत्र को समझना है की दर्पण सबको देखना चाहिए क्यों? क्योंकि दर्पण ही व्यक्ति का गुरु होता है और दर्पण ही व्यक्ति का दुश्मन होता है।

शीसा स्वयं से देख लेंगे तो वह गुरु का काम करेगा और वही दर्पण दूसरा कोई दिखाएगा तो दुश्मन का काम करेगा। दर्पण देखने का अर्थ है यहां पर आत्म दर्शन, आत्म मूल्यांकन, आत्म परीक्षण। कोई दूसरा दिखलाए उसके पहले सज्जनों स्वयं ही दर्पण देख लेना चाहिए।जो स्वयं से शीसा देख लेता है वह बच जाता है जो नहीं देखता है फिर उसे दूसरे लोग दिखाते हैं।

इसी प्रसंग से जुड़ी हुई बात समझने का प्रयास करते हैं कि दर्पण मनुष्य को कब देखना चाहिए? महाराज दशरथ की जय जयकार हुई तब उन्होंने दर्पण को देखा तो जब जय जयकार बढ़ने लगे तब दर्पण देखना प्रारंभ करिए। और एक दर्पण ऐसा है जो सबके पास सदैव रहता है वह कौन सा दर्पण है? वह है मन रूपी दर्पण जिससे आत्म चिंतन वह मनन के द्वारा खुद को देखा जाता है।

तोरा मन दर्पण कहलाये ॥
भले बुरे सारे कर्मों को, देखे और दिखाये
तोरा मन दर्पण कहलाये ॥

मन ही देवता, मन ही ईश्वर, मन से बड़ा न कोय॥
मन उजियारा जब जब फैले, जग उजियारा होय,
इस उजले दर्पण पे प्राणी, धूल न जमने पाये,
तोरा मन दर्पण कहलाये॥

सुख की कलियाँ, दुख के कांटे, मन सबका आधार॥
मन से कोई बात छुपे ना, मन के नैन हज़ार ,
जग से चाहे भाग लो कोई, मन से भाग न पाये ,
तोरा मन दर्पण कहलाये॥

तन की दोलत,जल की छाया मन का धन अनमोल॥
तन के कारण मन की धुन को मत मट्टी में रोल,
मन की कदर भूलने वाला हीरा जनम गवाए
तोरा मन दर्पण कहलाये॥

तो महाराज दशरथ ने भरी सभा में दर्पण देखा और इसीलिए देखा कि आत्म निरीक्षण किया जाए और जब महाराज दशरथ ने आत्म निरीक्षण किया तो क्या दिखलाई पड़ा?

श्रवन समीप भए सित केसा। मनहुँ जरठपनु अस उपदेसा।।
नृप जुबराज राम कहुँ देहू। जीवन जनम लाहु किन लेहू।।

महाराज दशरथ ने देखा कि कानों के पास बाल सफेद हो गए हैं, मानो बुढ़ापा ऐसा उपदेश कर रहा है कि हे राजन श्री रामचंद्र जी को युवराज पद देकर अपने जीवन और जन्म का लाभ क्यों नहीं लेते?

सज्जनो यह जो कान के पास बाल सफेद सबसे पहले होते हैं उसके पीछे परमात्मा का यही संदेश होता है कि अभी तक तुम घर गृहस्ती संसार के कामों पर खुद को लगाए रखे लेकिन अब वह समय आ गया है कि परमात्मा का भजन करो। क्योंकि यह जो संसार है मायामय है अंधकारमय है इसीलिए यह जीव के लिए संदेश होता है कि अब जब तक बाल काले थे तब तक काले कर्म यानी संसार के लिए जीते रहे। अब श्वेत बाल होते ही तुमको श्वेत उज्जवल काम करना है। उस परमात्मा का भजन करना है। लेकिन यह दृश्य देख करके भी संसार के बंधन में जकड़ा हुआ मनुष्य कभी चेतता नहीं है और इसी संसार में दुख रूपी नरक में दुख उठाता रहता है।

हीरा नर-जन्म- समुद्र के किनारे दो मनुष्य एक-एक हीरा पाये । एक ने तो उसे पत्थर जानकर बच्चे को दे दिया खेलने के लिए और बच्चा खेल - खाल कर कहीं धूल में फेंक दिया। दूसरे बुद्धिमान मनुष्य ने उस हीरा को जौहरी के यहां भजाकर बहुत द्रव्य पाया, जिससे वह एक सम्पदाशाली सुखी मनुष्य हो गया । इसी प्रकार बहुमूल्य मोक्षदायी हीरा रूप मनुष्य शरीर तो बहुत प्राणी पाये हैं किन्तु अधिकतम लोग इस उत्तम नर शरीर से भजन, भक्ति, धर्म, परोपकार न करके इस मन रूपी अबोध बच्चे को विषयभोग रूपी खेल के लिए दे देते हैं ।

फल यह होता है कि इस मोक्षदायी नर तन को अबोध मन विषय-भोग, माया-मोह रूपी धूल में समाप्त कर देता है । जिससे जीव का आवागमन-दुख बना रहता है। बुद्धिमान मनुष्य इस उत्तम मनुष्य चोला रूपी हीरा को विवेकी-संत गुरु रूपी जौहरी के पास भजाकर अर्थात इसका महत्त्व जानकर जीव का उद्धार कर लेते हैं । मनुष्यो ! तुम्हारी यह उत्तम काया तभी सफल है जब इसे भजन - भक्ति में लगाकर शान्ति प्राप्त करो । भोगी जीवन पशुतुल्य है । इसीलिए समय रहते संभल जाना चाहिए महाराज दशरथ भी आज विचार करने लगे।

निष्कंटक पूर्ण हुई वसुधा, वश में सब अपने देश हुए।

प्रजा निर्भय होकर फूली फली, न कहीं लवलेश कलेश हुए ||

परमेश का ध्यान करूँ अब तो, सिर ऊपर के सितकेश हुए।

'हरेकृष्ण' निरर्थक जीवन ये, हरि भक्ति के बिना क्या नरेश हुए ||

महाराज दशरथ जी का मुकुट तिरछा हुआ, महाराज दशरथ ने विचार किया कि यह मुकुट मेरे सर से गिरने वाला है। यह मेरे शीश से गिरे उससे पहले हि किसी योग्य सर पर यह मुकुट मैं धारण करा दूं। मुकुट क्या है? मुकुट सत्ता का प्रतीक है। तो महराज दशरथ विचार कर लिए की राजसत्ता की बागडोर किसी योग्य को थमाने का समय आ गया है। यह राज्य सत्ता की बागडोर किसी योग्य के हाथों पर सौंप दी जाए। तो महाराज दशरथ जी के मन में जो विचार आया वह जगत बंदिनीय है। क्या विचार आया? अरे सत्ता तो सत्यनारायण के ही शीश पर शोभा देती है। क्यों ना यह अयोध्या की सत्ता श्री राम के सर पर रख दी जाए।

बोलिए राजा रामचंद्र भगवान की जय

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